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सम्पादकीय
वर्तमान में जैनधर्म में दो पूजा पद्धतियाँ प्रचलित हैं। एक में जनप्रतिमा के समक्ष सचित्त पुष्प, सचित फल और पक्वान्न चढ़ाए जाते हैं, प्रतिमा पर चन्दनलेप किया जाता है, दीप प्रज्वलित कर आरती की जाती है और भगवान् के सामने सुगन्ध उत्पन्न करने के लिए अग्नि में धूप जलाई जाती है। दूसरी पूजापद्धति में सचित्त पुष्पों के स्थान पर चावल, सचित्त फलों के स्थान पर सूखे नारियल और मेवे अर्पित किये जाते हैं। पक्वान्न के स्थान में नारियल की सफेद चिटकें और दीप के स्थान में पीली चिटकें चढ़ायी जाती हैं। अग्नि में धूप जलाने का निषेध है। यह अन्य द्रव्यों के समान थाली में ही अर्पित की जाती है अथवा उसके स्थान में लौंग चढ़ाने का विधान है।
वर्तमान में पहली पूजापद्धति बीसपन्थी पूजापद्धति के नाम से प्रसिद्ध है और दूसरी तेरहपन्थी पूजापद्धति के नाम से। तेरहपन्थ और बीसपन्थ ये दोनों नाम किसी भी जैनशास्त्र में उपलब्ध नहीं है। ये हिन्दी भाषा के शब्द हैं और आज से चारसौ वर्ष पहले जब आगरा के प्रसिद्ध जैन विद्वान पं. बनारसीदास जी ने पहले प्रकार की पूजापद्धति का विरोध कर दूसरे प्रकार की पूजापद्धति प्रचलित की थी, तब से प्रसिद्ध हुए हैं। (देखिएसिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री-कृत 'जैनधर्म' पृष्ठ ३०४) ।
आज इन पूजापद्धतियों को लेकर जैनों में गहरा मतभेद दिखाई देता है। वे दो पन्थों में विभाजित हो गये हैं और दोनों एक-दूसरे की पूजापद्धति को गलत और आगमविरुद्ध कहते हैं तथा पूजापद्धति की भिन्नता के कारण एक-दूसरे को अस्पृश्य सा समझते हैं।
दोनों पूजापद्धतियाँ आगमसम्मत
यह स्थिति चिन्तनीय है और जिनतीर्थ तथा जैनसंघ के लिए शुभ संकेत देनेवाली नहीं है। वस्तुतः दोनों पूजापद्धतियाँ आगमसम्मत हैं और जिस पद्धति को बीसपन्थी नाम दिया गया है, उसी का समस्त जैनशास्त्रों (श्रावकाचारों और पुराणों) में विधान है। छठी शताब्दी ई. के तिलोयपण्णत्ति नामक ग्रन्थ के पंचम महाधिकार में लिखा है कि अष्टाह्निका पर्व में देवगण नन्दीश्वर द्वीप में जाते हैं और विविध प्रकार से जिनप्रतिमाओं की पूजा करते हैं। पहले सुवर्णकलशों में भरे हुए सुगन्धित जल से उनका अभिषेक करते हैं, पश्चात् कुंकुम, कर्पूर, चन्दन, कालागरु और अन्य सुगंधित द्रव्यों से उनका विलेपन करते हैं
कुंकुमकप्पूरेहिं चंदणकालागरूहि अण्णेहिं । ताणं विलेवणाई ते कुब्वंते सुगंधगंधेहिं ॥१०५ तिलोयपण्णत्ति (पंचम महाधिकार) में यह भी लिखा है कि देव सेवन्ती, चम्पक, पुन्नाग, नाग आदि के पुष्पों की सुगंधित
मई 2002 जिनभाषित
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मालाओं, अनेक प्रकार के रसमय भोज्य पदार्थों, दिग्मण्डल को सुगंधित करने वाली धूपों तथा दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम आदि पके हुए फलों से जिन प्रतिमाओं को पूजते हैं। यथासयवंतराय चंपय माला पुण्णागणाग पहुदीहिं अच्यंति ताओ देवा, सुरहीहिं कुसुम-मालाहिं ॥ १०७ बहुविहरसवंतेहिं वरभक्खेहिं विचित्तरूवेहिं । अमयसरच्छेहिं सुरा जिणिंद-पडमाओ महयंति ॥१०८ वासिददियंतरेहिं कालागरूपमुह विविधधूवेहिं । परिमलिदमंदिरेहिं महयंति जिनिंदबिंबाणि ॥११० दक्खा दाडिमकदली-णारंगयमाहुलिंग चूदेहिं ।
अण्णेहिं पक्केहिं फलेहिं पूजति जिणणाहं ॥ १११ आचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में बतलाया है कि एक मेंढक बावड़ी से कमलपुष्प लेकर, समवशरण में विराजमान भगवान् महावीर की पूजा करने के लिए जा रहा था । रास्ते में हाथी के पैर से दब जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई, किन्तु पूजानुराग से अर्जित पुण्य के प्रभाव से वह सौधर्म स्वर्ग का महाऋद्धिधारी देव बन गया (४ / ३०)
गुणभद्रकृत उत्तरपुराण (९वीं शताब्दी ई.) में वर्णन है कि जीवन्धरकुमार क्षेमदेश के 'क्षेम' नामक नगर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने जैनमन्दिर के समीपवर्ती सरोवर में स्नान किया और सरोवर में उत्पन्न हुए बहुत से फूल लेकर जिनेन्द्र भगवान् की पूजा की
तद्विलोक्य समुत्पन्नभक्तिः स्त्रानविशुद्धिभाक् । तत्सरोवरसभ्भूतप्रसवैर्बहुभिर्जिनान् ।। ७५/४०९ अभ्यर्च्यायैर्मुदाव्यग्रमस्तोष्टेष्टैरभिष्टवैः ।
सुता तत्र सुभद्राख्य श्रेष्ठिनो निर्वृते सा ॥ ७५/४१० वीरसेन स्वामी ने जयधवलाटीका में कहा है कि यद्यपि चौबीसों तीर्थंकर हिंसा के कारणभूत दानपूजादि श्रावकधर्म का उपदेश देते हैं, क्योंकि जिनप्रतिमा का स्नपन, अवलेपन, सम्मार्जन, पुष्पारोपण, धूपदहन आदि जीववध की कारणभूत क्रियाओं के बिना पूजा संभव नहीं है, तथापि उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि उनके मिध्यात्व असंयम और कषाय का अभाव होता है
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" ण्हवणोपलेवण-संमज्जण- छुहावणा- फुल्लारोवणधूवदहणादिवावारेहि जीववहाविणा भावीहि विणा पूजाकरणाणुववत्तीदो च।" ( जयधवलासहित कसायपाहुड, भाग १, पृष्ठ ९१ )
सचित्त पुष्प फलों का पूजा में प्रयोग करने से जीवहिंसा होती है, किन्तु आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि हिंसा अल्प होती है, पुण्यबन्ध अधिक होता है, अतः पूजा से लाभ ही है, हानि
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