SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'जिनभाषित' पत्रिका का एक अङ्क अनायास देखकर आत्मा । के साथ-साथ विमर्श को आधार देती है। इस अंक का सम्पादकीय की आवाज पर मैं इसका आजीवन सदस्य बन गया। इसके प्रत्येक | समाज के यथार्थ का चित्रण करता है, यह प्रयास सराहनीय है। अंङ्क में धर्ममय विषयसामग्री, ज्ञानवर्धक व उपयोगी लेख के | लोग ऐसे लेख पढ़कर स्वयं का आकलन करें और सही मार्ग पर साथ-साथ आचार्यों, मुनियों व विद्वानों के लेख पढ़ने को मिलते | आ जाएँ तो हमारे लेखन की सार्थकता बढ़ेगी। हैं। इसी कारण यह पत्रिका हमारे परिवार में सभी को अत्यधिक पत्रिका में प्रकाशित लेखों की समीक्षा के रूप में पाठकों प्रिय है एवं यह आत्मकल्याण में सहायक सिद्ध हो रही है। की ओर से प्रकाशित सुझावों को भी गंभीरतापूर्वक स्वीकार कर सि. हुकुमचन्द्र जैन 'कंचन' | आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। हमें ऐसे विचारवान् पाठकों से सिंघई सदन, दुबे चौक, यह आग्रह भी करना चाहिए कि वे न केवल चिंता प्रकट करें, मऊरानीपुर (झाँसी) अपितु एक कदम आगे बढ़ाते हुए सार्थक प्रयास भी करें । समाज 'जिनभाषित ' मार्च 2002 अङ्क बहुत अच्छा लगा। वैसे सुधार की प्रक्रिया जटिल और संघर्षपूर्ण होती है। लोकमान्यता के तो प्रत्येक अङ्क ही अपने आप में जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गए अनुरूप चलने में कोई कष्ट नहीं होता, लेकिन धारा के विपरीत वचनों की गौरवगाथा के रूप में उपस्थित होता है, किन्तु इस अङ्क बहने में शक्ति ज्यादा लगना स्वाभाविक है। आज का समाज में प्रकाशित मुनिश्री समतासागरजी द्वारा रचित 'भक्तामर दोहानुवाद' सबके साथ चलने का हामी हो गया है, चाहे लोग गलत मार्ग पर वास्तव में एक अनुपम रचना है। युगों पूर्व पूज्य मुनिश्री मानतुंगाचार्य ही क्यों न चल पड़े हों। संत कबीर की वाणी में इसे 'भेड़चाल' द्वारा रचित 'भक्तामर स्तोत्र' का सामान्यजन की भाषा व प्रचलित कह सकते हैं। इस प्रक्रिया का अंत यदि समझ लें, तो नये विचार शैली में दोहानुवाद करना एक महान् कार्य है। जैसा कि आपने की प्रक्रिया शुरु होती है। लिखा है कि दोहों में तुलसी, रहीम, भूधरदास आदि के व्यक्तित्व आपने 'जिनभाषित' को बहुआयामी बनाने का प्रयास की झलक मिलती है और गागर में सागर भरने के समान इसमें किया है। अन्य पत्रिकाओं के मुकाबले में आज एक ऐसी विचारवान भावों व हृदय के उद्गारों को सहज रूप में ही प्रकट किया गया पत्रिका की आवश्यकता थी। यद्यपि अभी हम सम्यक् रूप से समाज का विश्लेषण करने और सभी को एकसूत्र में बाँधने का इस अनुपम व अनमोल रचना के लिये मुनिश्री के चरणों सार्थक तरीका खोज पाने में सफल नहीं है, फिर भी आशा की में वारंवार वंदन एवं प्रकाशन हेतु आपको भी अनेकानेक धन्यवाद । जानी चाहिए कि शनैःशनै हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। पत्रिका में परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी का प्रवचन 'ममकार पत्रिका में प्रकाशित आचार्यश्री के प्रवचनों को पढ़ा है। और अहंकार छोडने का नाम है दीक्षा' एवं मूकमाटी के अंश आचार्यश्री स्वयं कहते हैं-"पंचकल्याणक राग-रंग के लिए नहीं, 'सही पुरुषार्थ' भी. पठनीय व जीवनोपयोगी हैं। वीतरागता के लिए होने चाहिए।" हमें यह चिंतन करना ही होगा पत्रिका का सम्पादकीय आज के भौतिक युग में बदलते कि क्या हम आचार्यश्री की भावना के पोषण की ओर बढ़ रहे हैं पारिवारिक परिवेश के वातावरण में चिंता की दिशा प्रदान करता या पंचकल्याणक वाहवाही के प्रतीक बन गये हैं, राशि संग्रहण है। वास्तव में आधुनिक रहन-सहन व सामाजिक वातावरण में के माध्यम बन गये हैं, समाज में प्रतिष्ठा के प्रतिरूप बन गये हैं, जिनधर्म ही हमारा सच्चा हितैषी हो सकता है। इस कार्य में लोकरंजन को प्रदर्शित करते हैं। यही वह बिन्दु है, जहाँ हमें पुनः 'जिनभाषित' पत्रिका ही हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। सुन्दर कबीर वाणी को सामने रखना होगा कि-"एक गिरा ज्यों खाँड में, प्रकाशन व उपयोगी सामग्री के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद। सबै ताहिं गिर जाएँ।" आचार्यश्री ने भ्रूणहत्या (गर्भपात) की रोहित कुमार जैन ओर चिंता प्रकट की है-क्या हमारा ध्यान इस ओर है? असल में १, द्वारिका पुरी, इन्द्रा नगर, लखनऊ (उ.प्र.) | हम सुनते आचार्य श्री की है, पर करते मनमानी है। यही विसंगति पत्रिका का फरवरी 02 अंङ्क पढ़ा। सामग्री पठनीय होने दामोदर जैन टीकमगढ़ (म.प्र.) ज्ञानदीप तपतेल भर, घर शोधे भ्रम छोर। या विध बिन निकसें नहीं पैठे पूरब चोर ॥ धनकनकंचन राजसुख, सबहिं सुलभकर जान। दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥ जाँचे सुरतरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन। बिन जाचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन । -मई 2002 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524262
Book TitleJinabhashita 2002 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy