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नहीं-'सावद्यलेशो बहपुण्यराशौ' (स्वयम्भूस्तोत्र)। जैसे मेंढक | बरफी चढ़ाने की परम्परा बीसपन्थी पूजापद्धति का अनुसरण है। भगवान् की पूजा के लिए कमलपुष्प तोड़कर ले जा रहा था, इससे | तथा दीपक के रूप में नारियल की पीली चिटकें भी समर्पित करते उसे हिंसा का पाप लगा होगा, किन्तु पुण्यबन्ध इतना अधिक हुआ | हैं और वास्तविक दीपक भी जलाते हैं, उससे आरती भी करते हैं। कि वह उसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग का महाऋद्धि-घारी देव हो | वास्तविक दीपक जलाना बीसपन्थी पूजापद्धति है। इसी प्रकार गया।
धूपपूजा का सम्पादन धुली हुई धूप या लौंगों को थाली में चढ़ाकर इस तरह जिस सचित्तपुष्पादि से पूजा करने को बीसपन्थी | भी करते हैं और अग्नि में घूप प्रज्वलित करके भी। अग्नि में धूप पूजापद्धति नाम दिया गया है, वह आगमोक्त है।
प्रज्वलित करना बीसपन्थी पूजापद्धति का अनुसरण है। यहाँ तक किन्तु आगम में यह वचन भी नहीं है कि सचित्त-पुष्पादि | कि जो द्यानतरायजी आदि द्वारा रचित पूजाएँ पढ़ी जाती हैं, वे ही पूजा की एकमात्र सामग्री है। भक्ति की अभिव्यक्ति अचित्त | बीसपन्थी पद्धति की ही हैं, क्योंकि उनमें सचित्त पुष्पादि एवं द्रव्यों के अर्पण से भी हो सकती है। इससे यह लाभ है कि पुण्य | मिष्टान्न आदि चढ़ाए जाने का ही वर्णन है। यथा, 'लहि कुन्द तो उतना ही अर्जित होगा, जितना सचित्तपूजा से हो सकता है, | कमलादिक पहुप...', 'नैवेद्य करि घृत में पचूँ...' इत्यादि। किन्तु हिंसा का पाप अल्प से अल्पतम हो जायेगा। इसीलिए आज | इस प्रकार जब तेरहपन्थी पूजापद्धति में भी बीसपन्थी का से चार सौ वर्ष पहले आगरावासी पं. बनारसीदास जी के उद्बोधन | मिश्रण है, तब बीसपन्थी पूजापद्धति का अनुसरण करनेवालों को से जैनों के एक वर्ग ने सचित्तपूजा, पक्वान्नपूजा, जिन प्रतिमा पर | दोष कैसे दे सकते हैं? और जब उसका विधान सभी श्रावकाचारों चन्दनविलेपन, दीपप्रज्वलन, धूपदहन आदि का परित्याग कर | और पुराणों में है, तब वह आगमविरुद्ध, दोषपूर्ण और हेय कैसे दिया और इसके स्थान पर पीताक्षतों, सफेद एवं पीली चिटकों, । कहला सकती है? गीली धूप एवं सूखे फल तथा मेवों से पूजा की जाने लगी। इस निष्कर्ष यह कि बीसपन्थी और तेरहपन्थी दोनों पूजापद्धतियाँ परिवर्तन के कारण पं. बनारसीदास जी का चलाया पन्थ पहले
आगमानुकूल हैं। पं. सदासुखदासजी ने भी कहा है-'दोऊ प्रकार वाणारसीमत, और बाद में तेरहपन्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
आगम की आज्ञा प्रमाण सनातन मार्ग हैं। अपने भावनि के अधीन ('जैनधर्म', पृष्ठ ३०४, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री)।
पुण्यबन्ध के कारण हैं।' (रत्नकरण्डश्रावकचार, हिन्दी टीका, तेरहपन्थी पूजापद्धति जैनधर्म के प्राणभूत अहिंसा-सिद्धान्त के अनुरूप है, अतः यह भी जिनागमसम्मत है।
कारिका 119) अत: दोनों में से किसी भी पूजा पद्धति को दोषपूर्ण किन्तु वर्तमान में तेरहपन्थी जैन, शुद्ध तेरहपन्थी पद्धति के |
और आगमविरुद्ध बताना उचित नहीं है। तेरहपन्थियों का बीसपन्थी अनुसार पूजा नहीं करते। उनकी पूजापद्धति में बीसपन्थी पूजापद्धति
पूजा पद्धति अपनानेवालों को अस्पृश्य समझना अथवा बीसपन्थियों की मिलावट है। उदारणार्थ, वे नैवेद्य के रूप में नारियल की | का तेरहपन्थियों को अछूत मानना और परस्पर निन्दा-आक्षेप चिटकें भी चढ़ाते हैं और तीर्थंकरों के निर्वाणदिवस पर बूंदी के | करना तथा अमैत्रीभाव रखना जिनतीर्थ और जैनसंघ के हित के लड़ या शक्कर की बरफी बना कर भी चढ़ाते हैं। यह लड्डु या | विरुद्ध है।
रतनचन्द्र जैन
• विश्वास दिलाया जा सकता है, पर रास्ता तो स्वयं को तय करना है।
आस्था मस्तिष्क में नहीं, हृदय में जमती है। अतः हमारी आस्था का केन्द्र ज्ञान-सम्पन्न मस्तिष्क नहीं, बल्कि भावना-सम्पन्न हृदय होता है। स्वार्थ की बू आते ही वर्षों का जमा हुआ विश्वास खिसकने लगता है। किसी पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपने आपको श्रद्धेय के प्रति सौंप देना ही समर्पण है।
आचार्यश्री विद्यासागर : 'सागर बूंद समाय' से साभार
-मई 2002 जिनभाषित
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