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________________ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहीं सदा सुख साता।।। शब्दार्थ - पोषत-पोषण करने से, अति-अत्यन्त, सोषत यह जगवास जथारथ दीखे, सब दीखै दुःख दाता ॥7॥ | शोषण करने से, बराबर-समान, प्रीति-राग, राचन जोग-रचने शब्दार्थ-नित-हमेशा, झूरै-सूखता है, संतति-संतान से, | पचने योग्य, विरचन जोग-दूर करने योग्य, यामें-इसमें। उपजै-उत्पन्न होता है, जथारथ-जैसे है वैसे/ यथार्थ में। अर्थ- पोषण करने से यह शरीर अत्यन्त दुःख और दोष अर्थ- कोई पुत्र के बिना हमेशा सूखता है, किसी के पुत्र | को करने वाला है और इस शरीर का शोषण करने से सुख को होकर मर जावे, तब रोता है एवं संतान खोटी हो तो उसके कारण उत्पन्न करने वाला है। ऐसे दुर्जन के समान इस शरीर से मूर्ख लोग दुःख उत्पन्न होता है। यह प्राणी कहाँ सुख प्राप्त कर सकता है ? ही राग को बढ़ाते हैं। रचने-पचने योग्य इस शरीर का स्वभाव अर्थात् कहीं भी नहीं। जिनके हमेशा पुण्य का उदय चलता है । नहीं है। इसका स्वभाव तो दूर करने योग्य है। इसीलिये इस शरीर उनके भी हमेशा सुखशांति नहीं होती है। इस संसार को जैसा है, को प्राप्त करके महान्-महान् तपों को करना चाहिये, इसमें यही वैसा देखा जावे तो सब ही जीव दुःख के देने वाले देखे जाते हैं। | सार है। जो संसार विषै सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे। भोग बुरे भव रोग बढ़ावै, बैरी हैं जग जीके। काहे को शिव साधन करते, संयम सों अनुरागे॥ बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागैं नीके। देह अपावन अथिर घिनावन, यामे सार न कोई। वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दुःख दाई। सागर के जल सो शुचि कीजे, तो भी शद्ध ना होई ॥8॥ धर्म रतन के चोर चपल अति, दुर्गति पंथ सहाई 11॥ शब्दार्थ-विषै-में, अपावन-अपवित्र, यामें-इसमें, शुचि- शब्दार्थ - जीके-आत्मा के, विपाक-उदय, लागैं-लगते पवित्र। हैं, नीके-अच्छे, अगिनि-अग्नि, विष-जहर, चपल-चंचल, पंथअर्थ- यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकर घर का त्याग | रास्ते में, सहाई-सहायता करते हैं। क्यों करते एवं मोक्ष के साधन स्वरूप संयम से अनुराग क्यों अर्थ- संसार रूपी रोग को बढ़ाने वाले ये पंचेन्द्रिय के भोग करते? इस प्रकार से संसार भावना का चिंतन करते हुए वह | संसारी प्राणियों के बैरी हैं। ये सेवन करते समय बहुत अच्छे लगते चक्रवर्ती शरीर की अपवित्रता का विचार करता है। हैं, परन्तु इनका फल अत्यन्त बेरस है। ये भोग वज्र से, अग्नि से, यह शरीर अपवित्र है, अस्थिर है, घिनावना है, इसमें कोई | विष से एवं विषधर से भी अधिक दुःख को देने वाले हैं। ये भोग सार नहीं है। समुद्र के जल से भी इसे पवित्र किया जाये तो भी धर्म रूपी रत्न को चुराने के लिए चोर हैं, अत्यन्त चंचल हैं और यह शरीर शुद्ध नहीं हो सकता है। दुर्गति के रास्ते में ले जाने में सहायता करते हैं। सात कुधातु भरी मल मूरत, चर्म लपेटी सोहै। । मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने। अंतर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है। ज्यों कोई जन खाये धतूरा, सो सब कंचन माने॥ नव मल द्वार स्रवे निशि वासर, नाम लिये घिन आवै। ज्यों-ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै॥9॥ तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवै।।12।। शब्दार्थ - सात कुधातु-रस, रुधिर, मांस, मेदा, हड्डी, शब्दार्थ - भले कर-अच्छा करने वाले, धतूरा-बुद्धि को मज्जा, वीर्य । चर्म-चमड़ी, सोहै-अच्छा लगता है, यासम-इसके विकृत करने वाला पदार्थ, कंचन-स्वर्ण, जन-लोग, पाढं-प्राप्त समान, अवर-दूसरा, नवमल द्वार-आँख दो, कान दो, मुख एक, करते हैं, ज्यों-ज्यों-जैसे-जैसे, त्यों-त्यों-वैसे-वैसे, लहर-तरंग। मल एक, मूत्र एक, नाक दो, स्रवें-बह रहे हैं, निशि-रात्रि, वासर अर्थ- जिस प्रकार कोई जीव बुद्धि को विकृत करने वाला दिन, सुधी-ज्ञानी जीव।। अर्थ-यह शरीर रस, रुधिरादि सात कुधातुओं से भरा हुआ पदार्थ (धतूरा) सेवन करता है तो उसे सब संसार स्वर्ण सरीखा है, मल की मूर्ति है, लेकिन बाहर चमड़ी के कारण अच्छा लगता नजर आता है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय से है, यदि अंदर देखें तो इसके समान अपवित्र वस्तु संसार में दूसरी पंचेन्द्रिय भोगों को भला करने वाला जानता है। जैसे-जैसे मन नहीं है। जिनका नाम लेने से ग्लानि-सी लगती है, ऐसे नव मल वांछित एवं मन को अच्छे लगनेवाले मनोहर भोगों का संयोग दिन-रात इस शरीर से बहते रहते हैं। और जहाँ अनेक प्रकार की करता है, वैसे-वैसे तृष्णा रूपी नागिन डंक मारती है तो इस पर शारीरिक बीमारियाँ एवं उपाधियाँ लगी हैं, वहाँ कौन बुद्धिमान | और जहर चढ़ता जाता है। अर्थात् इसके भोगों की चाह और सुख की प्राप्ति कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं कर सकता है। पोषत तो दुःख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै। | बढ़ती जाती है। दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै॥ अर्थकर्ता- ब्र. महेश राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है। श्रमण संस्कृति संस्थान यह तन पाय महातप कीजे, यामें सार यही है 10॥ सांगानेर, (जयपुर) 24 मई 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524262
Book TitleJinabhashita 2002 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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