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वैराग्य भावना
पं. भूधरदासजी कृत 'पारस पुराण' से
बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जग मांहि। । शब्दार्थ - कथनी-उपदेश, आवलि-पंक्ति, लगत-लगती
त्यों चक्री नृप सुख करे, धर्म विसारै नाहिं ॥1॥ । है, भरम-भ्रम, बुधि-बुद्धि, भागी-दूर हो जाती है, तन-शरीर, शब्दार्थ - राख-रख करके, फल-फसल का, नृप-राजा, | विचार्यो-विचार किया, इह-इस, ओर-अन्त, दव-जंगल। विसारै-भूलना।
अर्थ - जिस प्रकार सूरज के किरणों की पंक्ति से अंधकार अर्थ- जिस प्रकार किसान बीज को रख लेता है और शेष | दूर हो जाता है उसी प्रकार मुनिराज के उपदेश को सुनकर उस बची हुई फसल का भोग करता है, उसी प्रकार चक्रवर्ती राजा भी | चक्रवर्ती की भ्रम रूपी बुद्धि दूर हो गयी एवं परम धर्म के प्रति पंचेन्द्रिय विषय के सुख को भोगता हुआ भी धर्म को भूलता नहीं | अनुराग करते हुए उस चक्रवर्ती ने संसार, शरीर और भोगों के
स्वरूप पर चिन्तन किया। इस संसार रूपी महाजंगल के भीतर इहविधि राज करै नरनायक, भोगै पुण्य विशालो।। भ्रमण करने का अंत नहीं है। इसमें जीव जन्म, मरण एवं बुढ़ापा सुख सागर में रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो ॥ । रूपी जंगल की अग्नि में जल रहा है एवं भयंकर दुःखों को प्राप्त एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेमंकर मुनि वंदे । । कर रहा है। देखि श्री गुरु के पद पंकज, लोचन अलि आनंदे ॥2॥
कबहूँ जाय नरक थिति भुंजै, छेदन भेदन भारी। - शब्दार्थ - विधि-प्रकार, नरनायक-चक्रवर्ती, रमत-रमण
कबहुँ पशु परजाय धरै तहँ, बध बंधन भयकारी।। करता है, क्षेमंकर-क्षेमंकर नाम के मुनि, श्री गुरु-श्रीगुरु, पदपंकज
सुरगति में पर सम्पत्ति देखे, राग उदय दुःख होई। चरण कमल, लोचन-आँखों में, अलि-भौंरा।
मानुष योनि अनेक विपत्तिमय, सर्वसुखी नहिं कोई॥5॥ अर्थ- उपर्युक्त प्रकार से धर्म को न भूलता हुआ वह शब्दार्थ- थिति- आयु, भुंजै- भोगता है, धरै-धारण करता चक्रवर्ती राज्य करता है एवं पुण्य के विशाल वैभव को भोगता है | है, तहँ-वहाँ। एवं पंचेन्द्रिय विषय रूप सुख में निरन्तर रमण करता है। उसे | अर्थ- कभी यह जीव नरक में जाकर आयुपर्यन्त छेदनमालूम ही नहीं हो पाता कि कितना काल बीत गया है। एक दिन | भेदन आदि के दुःखों को भोगता है। कभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय की उस चक्रवर्ती ने तीव्र पुण्य कर्म के संयोग से क्षेमंकर मुनि की | पर्याय को प्राप्त करता है। वहाँ वध, बंधन, भय आदि के दुःखों को वंदना की। श्री गुरु के चरण कमलों को देखकर उसकी आँखों में | भोगता है। देवगति में भी दूसरों की संपत्ति को देखकर राग के इतना आनंद हुआ, जितना एक भौरे को कमल की सुगंध से होता । | उदय के कारण दुःखी होता है और मनुष्य पर्याय में भी अनेक
प्रकार की विपत्तियों से सहित है। इस संसार में कोई भी सुखी नहीं तीन प्रदक्षिण दे सिर नायो, कर पूजा थुति कीनी। | है, सब दु:खी ही हैं। साधु समीप विनय कर बैठ्यो, चरणन में दृष्टि दीनी॥
कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संयोगी। गुरु उपदेश्यो धर्म शिरोमणि, सुन राजा वैरागे ।
कोई दीन दरिद्री विलखै, कोई तन के रोगी॥ राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे॥3॥
किसही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई। शब्दार्थ- थुति-स्तुति, साधु-क्षेमंकर मुनि, समीप-पास
किसही के दुःख बाहिर दीखै, किसही उर दुचिताई॥6॥ में, रमा-लक्ष्मी, वनितादिक-स्त्री पुत्रादि, बेरस-बिना रस वाले। शब्दार्थ- इष्ट- प्रिय, विलखै-रोता है, दीन-गरीब,
- अर्थ- उस चक्रवर्ती ने क्षेमंकर मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा | कलिहारी-झगड़ा करने वाली,कै-किसी के, दीखें-दिखते हैं, व नमस्कार करके पूजा, स्तुति की एवं उनके समीप विनयपूर्वक दुचिताई-स्थित रहते हैं/ छिपाये रहते हैं। बैठ गया एवं अपनी दृष्टि साधु के चरणों की ओर कर ली। धर्म | अर्थ- इस मनुष्य पर्याय में कोई इष्ट पदार्थ के वियोग से, शरोमणि उस चक्रवर्ती ने उन मुनिराज का उपदेश सुना एवं वैराग्य | कोई अनिष्ट पदार्थों के संयोग से रोता है, कोई गरीबी के कारण, को प्राप्त हो गया। अब उसे राज, लक्ष्मी, स्त्री, पुत्रादि में जो आनंद | कोई दरिद्रता के कारण बिलखता है, कोई शरीर के रोगी होते हैं, आता था, वह आनंद अब बेरस (बिना रस वाला) लगने लगा। | किसी के घर में पत्नी झगड़ा करने वाली है! किसी का भाई
मुनि सूरज कथनी किरणावलि, लगम भरम बुधि भागी। | दुश्मन के समान होता है। किसी के दुःख दिखाई देते हैं एवं कोई भव-तन-भोग स्वरूप विचार्यो, परम धरम अनुरागी।।
हृदय में ही छिपाये रहता है। इह संसार महावन भीतर, भरमत ओर ना आवै।
कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवै। जामन मरन जरा दव दाहै, जीव महा दुःख पावै ॥4॥
खोटी संतति सो दुःख उपजै, क्यों प्रानी सुख सोबै॥
-मई 2002 जिनभाषित 23
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