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________________ जिज्ञासा आजकल बहुत से जैनी भाई, अन्य धर्मों के है गुरुओं की भक्ति में रचे गये गुरु भक्ति के कैसेटों को बजाने लगे हैं ये कैसेट मुनिमहाराजों के चातुर्मास में लगी हुई साहित्य की दुकानों पर मिलते हैं। क्या इनका बेचना या बजाना उचित माना जाये ? - - समाधान वर्तमान में जैनेतर धर्मों द्वारा अपने गुरुओं की भक्ति में बनाए गए कैसेटों की इन दुकानों में भरमार दिखाई देने लगी है। ये कैसेट " गुरुभक्ति" के नाम से उपलब्ध हैं। जैनी भाई इसके अच्छे संगीत और मीठी आवाज के कारण इनको खरीद लेते हैं, जबकि यदि ध्यान से सुना जाये तो ये जैन साधुओं की भक्ति के गीत नहीं हैं। दुख इस बात का है कि हम लोग कैसेट बजाना तो पसन्द करते हैं, पर उसके बोलों पर ध्यान नहीं देते। हमें केवल अच्छा म्यूजिक होने के कारण इनको बजाना पसन्द है, न कि गुरुभक्ति के कारण कैसेट निर्माताओं ने इतनी चालाकी कर रखी है कि वे इस पर अपना नाम नहीं लिखते। वर्तमान में ऐसे बहुत से गुरुभक्ति के कैसेट उपर्युक्त दुकानों द्वारा समाज में बेचे जा रहे हैं । वास्तव में इनका बेचना और बजाना दोनों ही उचित नहीं है। जहाँ भी चातुर्मास हो, वहाँ के आयोजकों को चाहिए कि वे ऐसे कैसेटों की बिक्री पर रोक लगाएँ तथा इन धार्मिक पुस्तकों के स्टॉलों पर केवल दिगम्बर जैन साहित्य तथा केवल दिगम्बर जैन गुरुओं के कैसेट बिक्री होने दें। पिछले दिनों श्वेताम्बरों द्वारा प्रचारित तथा अनुराधा पोडवाल' द्वारा गाये गए " भक्तामर स्तोत्र " के कैसेट अपने समाज में बहुत प्रचलित हुए। गायिका की सुरीली आवाज के कारण इनको खरीद तो लिया, लेकिन यह ध्यान नहीं दिया कि कैसेट के प्रारंभ में जो मंगलाचरण है, उसमें पहले मंगलाचरण में "मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतम गणी, मंगलं स्थूलभद्राद्यो जैनधर्मोस्तु मंगलं " यह मंगलाचरण दिया है तथा इसमें बजाय 48 काव्यों के मात्र 44 ही काव्य हैं, क्योंकि श्वेताम्बरों में 44 काव्यों की मान्यता है। अतः हमें गायिका की सुरीली आवाज को न देखते हुए ऐसे गलत कैसेटों को हटा देना चाहिए। जिज्ञासा चान्द्री चर्या किसे कहते हैं ? जिज्ञासा समाधान समाधान जैसे चन्द्रमा का प्रकाश किसी के घर आँगन आदि का भेद न करके सबके घर में फैलता है, उसी प्रकार दिगम्बर साधु भी राजा रंक आदि का भेद न करके सभी श्रावकों के घर आहार के लिए चर्या करते हैं, उसे चान्द्री चर्या कहते हैं। जिज्ञासा1- क्या देवों के भावलेश्या के अनुसार द्रव्य लेश्या होती है? समाधान श्री जीवकाण्ड गाथा 496 में इस प्रकार कहा Jain Education International - 14 मई 2002 जिनभाषित - रिया किण्हा कप्पा, भावाणुगया हु तिसुरण तिरिये । उत्तरदहे छके भोगे रविचंदहरि दंगा ॥ 496 | अर्थ- सम्पूर्ण नारकी कृष्णवर्ण ही है। कल्पवासी देवों की द्रव्यलेश्या ( शरीर का वर्ण) भावलेश्या सदृश होती है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, मनुष्य, तियंच इनकी द्रव्यलेश्या छहों होती हैं तथा इन देवों की विक्रिया के द्वारा उत्पन्न होने वाले शरीर का वर्ण भी छह प्रकार में से किसी भी एक प्रकार का होता है। उत्तम भोग भूमि वाले मनुष्य तिर्थयों का शरीर सूर्य समान, मध्यम भोग भूमि वाले मनुष्य तिर्यंचों का शरीर चन्द्र समान तथा जघन्य भोगभूमि वाले मनुष्य/तियंचों का शरीर हरितवर्ण होता है। पं. रतनलाल बैनाड़ा श्री तिलोयपण्णत्ति अधिकार-5, गाथा नं. 55 से 58 में इस प्रकार कहा है "सब किन्नर देव प्रियंगु सदृश देह वर्ण से, किम्पुरुष देव स्वर्ण सदृश देह वर्ण से, महोरग श्याम वर्ण वाले, गंधर्व स्वर्णसदृश, यक्ष देव श्याम वर्ण से, राक्षस, भूत और समस्त पिशाच कृष्ण वर्ण के शरीर वाले होते हैं।" 44 श्री धवला पु. 2, पृष्ठ 532-535 में इस प्रकार कहा है'दव्व लेस्सा णाम वण्ण णाम कम्मोदयादो भवदि, ण भाव लेस्सा दो । वण्णणाम कम्मोदयादो भवण वासियवाणवेंतरजोइसियाणं दव्वदो छ लेस्साओं भवति, उवरिम देवाणं तेड पम्मसुक्क लेस्साओ भवंति । " अर्थ- द्रव्यलेश्या, वर्णनामा नामकर्म के उदय से होती है, भावलेश्या से नहीं। वर्णनामा नाम कर्म के उदय से भवनवासी, वाणव्यतंर और ज्योतिषी देवों के द्रव्य की अपेक्षा छहों लेश्याएँ होती हैं तथा भवनत्रिक से ऊपर देवों के तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती है। श्री राजवार्तिक में भी इसी प्रकार लिखा है। उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार यह स्पष्ट होता है कि भवनत्रिक देवों में भावलेश्या के अनुसार द्रव्यलेश्या का नियम नहीं हैं, जबकि सभी कल्पवासी देवों में भावलेश्या के अनुसार द्रव्यलेश्या होने का नियम है। जिज्ञासा शुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि देव जब चयकर मनुष्य या तिर्यच बनते हैं, तब उनके शुभ लेश्या रहती है या नहीं ? समाधान- उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में श्री धवलपुस्तक 2, पृष्ठ 656 पर इस प्रकार कहा है- "देव मिच्छाइट्टि सासणसम्मा दिट्टिणो उ-पम्मसुक्कलेस्सासु वट्टमाणा सा होऊण तिरिक्खमुणस्सेसुप्पज्जमाणा उप्पण्णपढमसमए चैव किण्हणीलकाउलेस्साहि सह परिणमति । " अर्थ तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान मिध्यादृष्टि For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.524262
Book TitleJinabhashita 2002 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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