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और सासादान सम्यग्दृष्टि देव, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते | मानुषोत्तर पर्वत से परभागवर्ती व स्वयंप्रभाचल से पूर्वभागवर्ती समय नष्टलेश्या होकर अर्थात् अपनी-अपनी पूर्व की लेश्या को | शेष द्वीप समुद्रों में संयतासंयत जीवों की संभावना कैसे है ? उत्तरछोड़कर मनुष्यों और तिर्यंचों में उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, | नहीं, क्योंकि पूर्व भव के बैरी देवों के द्वारा वहाँ ले जाये गये नील और कपोत लेश्या से परिणत हो जाते हैं।
तिर्यंच संयतासंयत जीवों की सम्भावना की अपेक्षा कोई विरोध उपर्युक्त प्रमाण से यह ज्ञात होता है कि शुभलेश्या वाले | नहीं है। अर्थात् बैरी देवों द्वारा कर्मभूमि से उठाकर फैंके गए मिथ्यादृष्टि तथा सासादन देवों की शुभलेश्याएँ मरण होते ही नष्ट | पंचमगुणस्थानावर्ती तिर्यंचों का उन जघन्य भोगभूमियों में भी हो जाती है और ये देव नियम से अशुभ लेश्याओं में चले जाते हैं। सद्भाव पाया जाता है। यह भी ज्ञातव्य है कि यद्यपि भोगभूमियों यह भी विशेष है कि सभी सम्यग्दृष्टि देव शुभ लेश्याओं में मरण में विकलत्रय जीव नहीं पाये जाते, परन्तु बैरी देवों के प्रयोग से करके मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए अपनी-अपनी पीत-पद्म और भोगभूमि प्रतिभाग रूप द्वीप समुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में शुक्ल लेश्याओं के साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।
विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, ऐसा कहने वाले आचार्यों के _ (श्री धवला पु.2, पृष्ठ 511) अभिप्राय से मानुषोत्तर के परभागवर्ती द्वीप समुद्रों में विकलेन्द्रिय जिज्ञासा - सुदर्शनमेरु की चोटी से सौधर्म स्वर्ग के ऋजु | जीव भी पाये जाते हैं। (देखे श्री धवला पु. 6, पृष्ठ-426) विमान के बीच में उत्तम भोगभूमि के बालाग्र प्रमाण दूरी कही गई जिज्ञासा - श्री विष्णुकुमार महामुनि ने ब्राह्मण का वेष है, तो क्या अन्य भूमि के बाल इससे स्थूल होते हैं?
बनाया और विक्रिया ऋद्धि को प्रयोग में लिया। तो क्या मुनिराज समाधान - विभिन्न भोगभूमियाँ जीवों के बालों की मोटाई | को प्राप्त ऋद्धियाँ, सग्रंथ अवस्था में भी अपना प्रभाव रखती हैं? में, इस प्रकार अंतर कहा गया है
समाधान - उपर्युक्त प्रश्र के संबंध में हम दो तरह से आठ उत्तम भोगभूमि के बालाग्र - एक मध्यम भोगभूमि का बालाग्र विचार करेंगे। 700 मुनियों के उपसर्ग निवारण हेतु क्या विष्णुकुमार आठ मध्यम भोगभूमि के बालाग्र = एक जघन्य भोगभूमि का बालान | महामुनि ने वामन का रूप धारण किया था या नहीं? आठ जघन्य भूमि का बालाग्र - एक कर्मभूमि संबंधी बालान 2. वामन की अवस्था में क्या विक्रियाऋद्धि का प्रयोग
उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि उत्तम भोगभूमि किया गया था और तब उनका गुणस्थान कौन सा था? अब प्रथम का बालाग्र सबसे पतला होता है।
प्रश्र पर विचार करते हैंजिज्ञासा -क्या मानुषोत्तर के पर भाग से स्वयंप्रभ पर्वत 1. श्री हरिवंशपराण (ज्ञानपीठप्रकाशन, पृष्ठ 301-302) तक जघन्य भोगभूमि में, केवल भोगभूमियाँ तिर्यंच ही होते हैं या | पर इस प्रकार लिखा है- राजा पद्म के ऐसा कहने पर विष्णुकुमार अन्य तिर्यंच भी पाये जाते हैं?
मुनि बलि के पास गये और बोले ... यदि शांति चाहते हो तो शीघ्र , समाधान - सामान्यतः तो मानुषोत्तर के पर भाग से स्वयंप्रभ | ही इस प्रकार जन्य उपसर्ग का संकोच करो। तदनन्तर बलि ने पर्वत तक जघन्य भोगभूमि होने से भोगभूमियाँ जीव ही पाये जाते | कहा कि यदि ये मेरे राज्य से चले जाते हैं तो उपसर्ग दूर हो हैं, परन्तु श्री धवला पु. 7, पृष्ठ 379 में इस प्रकार भी प्रमाण सकता है, अन्यथा ज्यों का त्यों बना रहेगा। इसके उत्तर में मिलता है-"अथवा सव्वेसुदीव-समुद्देसुपंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि ये सब आत्मध्यान में लीन है, इसलिए होति। कुदो पुव्ववइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णपंचिंदि- यहाँ से एक डग भी नहीं जा सकते।.... इन मुनियों के ठहरने के यतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालिय देहाणं | निमित्त तुमसे तीन डग भूमि की याचना करता हूँ।... विष्णुकुमार सव्वदीवसमुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअप्पज्जत्ता होंति।" अथवा सभी | मुनि की बात स्वीकृत करते हुए बलि ने कहा कि यदि ये उस द्वीप समुद्रों में पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि पूर्व | सीमा के बाहर एक डग का भी उल्लंघन करेंगे तो दण्डनीय होंगे..... । के बैरी देवों के संबंध से एक बन्धन में बद्ध छह जीवनिकायों से | तदन्तर बलि को वश में करने के लिए विष्णुकुमार मुनि उद्यत व्याप्त औदारिक शरीर को धारण करने वाले कर्मभूमि प्रतिभाग में हुए... उन्होंने एक डग मेरु पर रखी, दूसरी मानुषोत्तर पर और उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा तीसरी अवकाश न मिलने से आकाश में ही घूमती रही। (इस जाता है।
प्रमाण के अनुसार तो विष्णुकुमार महामुनि ने मुनि अवस्था में ही भोगभूमि में मात्र एक से चार गुणस्थान पाये जाते हैं, | उपसर्ग निवारण किया था, उन्होंने वामन का रूप नहीं बनाया था) क्योंकि संयमासंयम या संयम का धारण करना वहाँ संभव नहीं। । 2. श्री उत्तरपुराण (ज्ञानपीठ प्रकाशन)पृष्ठ 358 पर इस अतः मानुषोत्तर के परभाग से स्वयंप्रभ पर्वत के पूर्वभाग तक प्रकार कहा है-इतना कहकर वे महामुनि वामन (बौने) ब्राह्मण भोगभूमियाँ तिर्यंच ही होने से केवल 1 से 4 गुणस्थान ही वहाँ का रूप रखकर बलि के पास पहुँचे और आशीर्वाद देते हुए बोले पाये जाते हैं, परन्तु धवला पु. 4, पृष्ठ 169 में इस प्रकार भी कहा | ...। है-कथं संजदासंजदाणं सेसदीव-समुद्देसु संभवो। ण, 3. श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार (आ. प्रभाचन्द्र टीका-हिन्दी पुव्ववेरियदेवेहि तत्थ पित्ताणं संभवं पडिविरोधाभावा। प्रश्र- | पं. पन्नालाल जी)- पृष्ठ-52 पर इस प्रकार कहा है तदनन्तर
-मई 2002 जिनभाषित 15
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