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________________ एक अहसास था मुनि श्री क्षमासागर जहाँ तरलता थी मैं डूबता चला गया, जहाँ सरलता थी मैं झुकता चला गया, संवेदनाओं ने मुझे जहाँ से छुआ मैं वहीं से पिघलता चला गया। सोचने को कोई चाहे जो सोचे, पर यह तो एक अहसास था जो कभी हुआ कभी न हुआ। प्रतियोगिता उसी दिन समझ गया था जब मैंने ईश्वर होना चाहा था, कि अब कोई जरूर ईश्वर से बड़ा होना चाहेगा। और अब सब ईश्वर से बड़े हो गये हैं, कोई ईश्वर नहीं है। Jain Education International नमोऽस्तु मंदिर में मुनियों को वंदना करते देखकर आज मैंने महामंत्र णमोकार की एक पंक्ति को दूसरी पंक्ति की साक्षात वंदना करते देखा ! में अरिहंत प्रसन्न मुद्रा मूर्तियों में मग्न थे, साधुगण साधना की प्रतिपूर्ति में नग्न थे! भक्तगण परमानन्दित भव्य दृश्य के आस्वादन में संलग्न थे! अरिहंतों में सिद्धि का प्रदीप्त आभा मण्डल था, साधु संग पाथेय रूप पिच्छी थी, कमंडल था ! कविता की दो पंक्तियाँ एक दूसरी को संदर्भ देकर समृद्ध कर रही थीं ! भक्ति और सिद्धि के रंग आपस में मिलकर, रंगारंग इंद्रधनुष बन गये थे ! सरोज कुमार सरोवर ने अपनी नीली आँखों से देखा कमल की एक पंखुरी दूसरी में खुल रही थी, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524259
Book TitleJinabhashita 2002 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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