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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
जिज्ञासा - क्या विद्या या मंत्र के द्वारा मँगाया गया आहार, | ही मत के देवताओं की पूजा करूँगा। इसलिए क्रोध करना व्यर्थ है। दान देने योग्य है?
आप अपनी इच्छानुसार किसी दूसरी जगह रहिए।' इस प्रकार प्रकट समाधान - श्री यशस्तिलकचम्पू में इस प्रकार कहा है - | रूप से उन देवताओं को ले जाकर किसी अन्य स्थान पर छोड़ दे।।46ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानीतमुपायनम्।
47॥ इस प्रकार पहले देवताओं का विसर्जन कर अपने मत के शान्त न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वाऽयथर्तुंक्तम्।।749।। देवताओं की पूजा करते हुए उस भव्य के यह गणग्रह नाम की चौथी
अर्थ- जो दूसरे गाँव से लाया गया हो या मंत्र के द्वारा लाया क्रिया होती है।48॥ गया हो या भेंट में आया हो या बाजार से खरीदा हो या ऋतु के उपर्युक्त आगम प्रमाण के अनुसार आपको भी अन्य देवताओं प्रतिकूल हो, वह भोजन मुनि को नहीं देना चाहिए।
की मूर्ति या चित्रों का विसर्जन कर देना चाहिए। जैन शासन किसी श्री व्रतोद्योतन श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है -
मत का भी तिरस्कार करना नहीं सिखाता। आपको जो यह सुबुद्धि शिल्पिविज्ञानिभिर्दत्तं दत्तं पाखण्डिभिस्तथा। प्राप्त हुई है अर्थात् आपने जो गृहीत मिथ्यात्व दूर करके अपना जीवन
संबलोपायनग्राममंत्राकृष्टं च डंकितम्।।115।। सफल बनाया है। उसके लिये हम आपको धन्य मानते हैं और आपके
अर्थ - शिल्पी (बढ़ई,लुहार) आदि कलाविज्ञानी जनों के द्वारा इस कार्य की अनुमोदना करते हैं। दिया गया हो, मिथ्यात्वी पाखंडियों के द्वारा दिया गया हो, संबल जिज्ञासा - क्या अभव्य समवशरण में जाते हैं, उनको भगवान (मार्ग पाथेय) उपायन (भेंट) और अन्य ग्राम से आया हो, मंत्र से | का उपदेश प्राप्त होता है या नहीं? आकर्षणकर मँगाया गया हो, डंकित (घुना) हो। ... ऐसा आहार श्रावक समाधान - उत्तरपुराण में आचार्य गुणभद्र कहते हैंको मुनियों के लिये नहीं देना चाहिए।
तन्निशम्यास्तिका: सर्वे तथेति प्रतिपेदिरे। श्री श्रावकाचारसारोद्वार में इस प्रकार लिखा है -
अभव्या दूर भव्याश्च मिथ्यात्वोदय दूषिताः।।71-198।। सावधं पुष्पितं मन्त्रानीतं सिद्धान्तदूषितम्।
अर्थ - भगवान की वाणी को सुनकर जो भव्य थे, उन्होंने जैसा उपायनीकृतं नान्नं मुनिभ्योऽत्र प्रदीयते।।338।। भगवान ने कहा था वैसा ही श्रद्धान कर लिया, परन्तु जो अभव्य
अर्थ- सावध हो, पुष्पित हो, मंत्र से मँगाया गया हो, सिद्धान्त | अथवा दूरभव्य थे, वे मिथ्यात्व के उदय से दूषित होने के कारण (आगम) से विरुद्ध हो, किसी के द्वारा भेंट किया गया हो, वह अन्न संसार बढ़ाने वाली अनादि मिथ्यात्व वासना नहीं छोड़ सके। मुनियों के लिये नहीं दिया जाता है अर्थात् ऐसा अन्न अदेय है। महाकवि पुष्पदंत महापुराण भाग-1, पृष्ठ-264-65 में
सारांश - उपर्युक्त सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि मंत्र | लिखते हैंया विद्याओं के द्वारा मँगाया गया आहार, दान में देने योग्य नहीं होता। अभवजीव जिणणाहें इच्छिय एक्कुण ते वि अणंत णियच्छिय।
साधु एवं विद्वानों के मुख से सुने हुए प्रवचनों के अनुसार दान | अर्थ - जिननाथ के द्वारा अभव्य जीव भी चाहे (सम्बोधित देने का अधिकारी भी वही व्यक्ति होता है, जो संयम ग्रहण करने किये) जाते हैं, वे एक नहीं अनेक देखे जाते हैं। की योग्यता रखता हो अर्थात् देव आदि के द्वारा दिया गया आहार उपर्युक्त आगम प्रमाणानुसार अभव्यजीव समवशरण में जा भी साधु ग्रहण नहीं करते। यदि ग्रहण करने में आवे या बाद में ज्ञात | सकते हैं और उनको भगवान की देशना भी सुनने को मिलती है। हो तो प्रायश्चित लेकर उस दोष की शुद्धि करते हैं। जैसा कि सम्राट | जिज्ञासा - क्या अचौर्याणुव्रती गढ़ा हुआ धन स्वीकार कर चन्द्रगुप्त के जीवन में मुनि बनने के बाद आहार का प्रसंग शास्त्रों | सकता है? में पढ़ने को आता है।
समाधान - गढ़े हुए धन का स्वामी राजा होता है। अतः जिज्ञासा - मैं अभी तक अन्य देवों को पूजता था, परन्तु | अचौर्याणुव्रती गढ़ा हुआ धन नहीं ले सकता। आगम प्रमाण इस प्रकार इस वर्ष चातुर्मास में जो प्रवचन सुने, उससे कुदेव पूजा का त्याग | है - धर्मसंग्रह श्रावकाचार में ऐसा कहते हैंले लिया है। अब जो मूर्ति या चित्रादि मेरे पास हैं, उनका क्या करूँ। निधानादिधनं ग्राह्यं नास्वामिक मितीच्छया। समाधान - आपके प्रश्न के उत्तर में आदिपुराण पर्व 39 भाग
अनाथं हि धनं लोके देशपालस्य भूपतेः।।57।। 2/273 पर इस प्रकार कहा है -
अर्थ - इस धन का कोई मालिक नहीं है, ऐसा समझकर जमीन 'निर्दिष्ट स्थान ...... देवताः समयोचिताः।।45-48।। में गढ़ा हुआ धन आदि नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जो धन अनाथ
अर्थ - जिसके लिये स्थान लाभ की क्रिया का वर्णन ऊपर दिया होता है अर्थात् जिस धन का कोई स्वामी नहीं होता है वह धन उस जा चुका है, ऐसा भव्य पुरुष जब मिथ्या देवताओं को अपने घर देश के राजा का होता है। से बाहर निकालता है तब उसके गणग्रह नाम की क्रिया होती है।45।। सागार धर्मामृत में इस प्रकार कहते हैंउस समय वह उन देवताओं से कहता है कि 'मैंने अपने अज्ञान से नास्वामिकमिति ग्राह्य निधानादिधनं यतः। इतने दिन तक आदर के साथ आपकी पूजा की, परन्तु अब अपने
धनस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः।।48।। 24 फरवरी 2002 जिनभाषित
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