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________________ ___ "निष्काम जिनभक्ति से बढ़कर अन्य | माँ. श्री में बचपन से कवित्व का गुण | जैन बाला विश्राम कोई पुण्य का कार्य नहीं है" इसका अनुभव था। उन्होंने संस्कृत व हिन्दी में अनेक सन् 1921 में श्री सम्मेदशिखर की कर उन्होंने जिन मंदिर का निर्माण एवं अनेक कविताओं का सृजन किया है। इनमें काव्यत्व यात्रा चंदाबाई ने सपरिवार की। समग्र पर्वत जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करायी, जिनमें प्रमुख की अपेक्षा उपदेश अधिक है। की वंदना के उपरान्त श्री पार्श्वप्रभु की टोंक हैं - (1) राजगृह में द्वितीय पर्वत के समीप कलाप्रियता पर श्री बाबू निर्मलकुमारजी की प्रेरणा से एक की जमीन खरीदकर पर्वत पर भव्य सर्वगुण सम्पन्न चंदाबाईजी कलाविद् वर्ष में जैन महिलाश्रम की स्थापना का नियम जिनमंदिर का निर्माण कराया और सन् 1936 भी थीं। जैन आगम के अनुसार रत्नागिरि लिया। स्व. बापू धर्मकुमार जी की स्मृति में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करायी। (2) आरा पर्वत पर जिनालय में कलश, मेहराब, स्वरूप आरानगर से दो मील दूर धर्मकुंज के में 40 शिखरबंद जिनालय होते हुए भी जालियाँ, झरोखे का निर्माण कराना, ध्रुव भव्य भवन में जैन बाला विश्राम की स्थापना मानस्तम्भ की कमी थी। अतएव माँ श्री ने धान्य, जन-लय नंद आदि 16 प्रकार के की और परिजनों के सहयोग से विद्यालय सन् 1939 में संगमरमर का भव्य रमणीय प्रासादों को जानकारी होना, बारह दोषों से भवन व चैत्यालय का निर्माण कराया। यह मानस्तम्भ तैयार कराया। उनकी ही प्रेरणा से रहित तीर्थंकरों की दिव्यमूर्तियाँ स्थापित | लौकिक व धार्मिक शिक्षा का केन्द्र तथा उनकी ननद श्रीमती नेमिसुंदरजी ने जैन बाला कराना, मानस्तम्भ में उत्कीर्ण 8 मूर्तियाँ तथा भारतवर्ष में नारी जागरण का अद्वितीय प्रतीक विश्राम के विद्यालय भवन के ऊपर भव्य जिन ऊपर की गुमटी में स्थित मनोज्ञ मूर्तियाँ मंदिर का निर्माण कराया। ऑरा के अनेकों उनकी कला मर्मज्ञता का प्रमाण है। चित्रकला सम्मान मंदिरों के जीर्णोद्धार भी उनकी प्रेरणा से हुए। में माँ श्री का अद्वितीय स्थान है। वे यद्यपि अ.भा.दि. जैन महिला परिषद् ने साहित्य साधना तूलिका लेकर चित्रों में रंग नहीं भरती थी ब्र.पं. चंदाबाई अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित मा. श्री चंदाबाईजी विदुषी, प्रभावी | तथापि पूजन, विधान, विशेष पूजापाठों के कराया और यह स्वतंत्र देश के प्रथम राष्ट्रपति प्रवचनकार एवं वक्ता होने के साथ श्रेष्ठ अवसर पर सुंदर मांडना पूरना, उसमें डॉ. राजेन्द्रप्रसादजी द्वारा आपको समर्पित लेखिका, कहानीकार, कवयित्री, संपादिका व यथोचित रंगचूर्ण भरना आदि कार्य उनकी किया गया। पत्रकार भी रहीं। उन्होंने महिलोपयोगी साहित्य चित्रकलाप्रियता के द्योतक हैं। सन् 1950 में संयम के पथ पर का सृजन किया। उनके द्वारा लिखित प्रमुख धर्मामृत के चित्र बनाने पधारे प्रसिद्ध चित्रकार सन् 1906 से ही चंदाबाईजी दैनिक निबंधसंग्रह/कृतियाँ हैं: श्री दिनेश बख्शी को माँ श्री ने चित्रकला के षट्कर्मों का पालन करती रही थीं। सन् 1934 (1) उपदेश रत्नमाला - इनमें दो | संबंध में विशेष परामर्श दिये थे। संगीतकला में आचार्य श्री शांतिसागरजी से उदयपुर भागों में 30 निबंधों का संकलन है। को तो माँ श्री क्रियाविशालपूर्व के अंतर्गत (आडग्राम) में कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को (2) सौभाग्य रत्नमाला - यह नौ | मानती थीं। उनके भक्तिविभोर होकर पूजन प्रात: नौ बजे सातवी प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी और पढ़ने पर हृदय के तार झंकृत हो जाते थे। वे निबंधों का संग्रह है। (3) निबंध रत्नमाला - यह 18 बालाविश्राम की छात्राओं को गरवा नृत्य. | पू. गणेशप्रसादजी वर्णी इनके प्रेरणा स्रोत थे। मुख पर साधना की रेखा गंभीर आँखों से सब संथाली नृत्य, शंकर नृत्य, लोक नृत्य हेतु निबंधों का संकलन है। प्रोत्साहित करती थीं। काव्य कलाविद तो वे | कुछ भूलकर सेवा करने की निश्छल साध, (4) आदर्श निबंध - इसमें निबंधों की थी हीं। जीवन का कर्ममय फैलाव और वस्त्र में संख्या 30 है। महत्त्वपूर्ण स्मरणीय कार्य सादगी, माथे में आगमपुराण, ज्ञान-विज्ञान (5) निबंध दर्पण - इसमें लगभग और हृदय में वात्सल्य का सागर, प्रेरणाओं 25/35 निबंध हैं। जब हरिजन मंदिर प्रवेश बिल लेकर का एक बंडल, एकांत की गायिका और बिहार समाज में हलचल मची तो आचार्य श्री (6) आदर्श कहानियाँ। की महान नारी श्री चंदाबाई जी ने 28 जुलाई शांतिसागरजी ने अन्न त्याग कर दिया। तब लेखन के साथ-साथ भा.दि. जैन 1977 को संसार से सदा के लिये विदा ले उनकी ही शिष्या चंदाबाई जी ने लेखन द्वारा महिला परिषद् द्वारा संचालित "जैन महिलातथा अन्य विद्वानों के साथ अनेक बार दिल्ली नारी अभ्युत्थान के लिए वे आश्रम की दर्श" मासिकपत्र का संपादन सन् 1921 से जाकर राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और आजीवन किया। उनके जैन व जैनेतर पत्रों संस्थापिका, संचालिका, अध्यापिका, प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से भेंट की। एवं अभिनंदन ग्रंथों में भी अनेक साहित्यिक, व्याख्याता, कुशल सेविका, लेखिका, कवउन्हें जैन धर्म की वस्तु स्थिति से अवगत आचरणात्मक, दार्शनिक, उपदेशात्मक आलेख यित्री और सफल सम्पादिका के रूप में सदैव कराया। जिससे प्रभावित हो हरिजन मंदिर प्रकाशित हुए हैं। स्मरणीय रहेंगी। प्रवेश बिल से जैन मंदिर पृथक कर दिये गये। मील रोड, गंजबासौदा म.प्र. ली। 20 फरवरी 2002 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524259
Book TitleJinabhashita 2002 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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