________________
नारीलोक
ब्रह्मचारिणी पण्डिता चन्दाबाई जी
बीसवीं सदी में नारी जागरण की प्रथम अग्रदूत के रूप में ब्रह्मचारिणी पण्डिता चन्दाबाई प्रख्यात हुई हैं। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध किया, ज्ञानदीप प्रज्वलित कर नारी को कर्त्तव्य का बोध कराया एवं शिक्षा के क्षेत्र में उसे आगे बढ़ाया। आज हर क्षेत्र में जैन नारी की जो अग्रणी भूमिका दिखाई देती है वह उनकी ही देन है। इनका जन्म वृन्दावन में वैष्णव परिवार में वि.सं. 1946 अषाढ़ शुक्ल तृतीया को हुआ था । पिता श्री नारायण दास अग्रवालं सम्पन्न जमींदार, प्रतिभाशाली एवं प्रेज्युएट विद्वान थे और माता थीं श्रीमती राधिका देवी। अपनी पुत्री के सौम्य मुख और गंभीर आकृति को देखकर उसका नाम चंदाबाई रखा। इनके दो धाता थे। श्री जमनाप्रसादजी एवं श्री जशेन्दुप्रसादजी और दो अनुजाएँ थीं- केशरदेवी व ब्रजवालादेवी ।
शिक्षा
घ
पाँच वर्ष की अवस्था में गणेश पूजन के साथ अ, आ, इ, ई, क, ख, ग, के उच्चारणपूर्वक चंदाबाई का विद्यासंस्कार संपन्न हुआ। विद्यालय में आरंभिक शिक्षा प्राप्त की। विशेष प्रतिभाशाली होने के कारण गुरुजन उन्हें सरस्वती का अवतार मानते थे । आरंभिक शिक्षा के साथ गीता और रामायण भी पढ़ी तथा घर-गृहस्थी के कार्यों में निपुण हुईं।
वैवाहिक जीवन
लगभग ग्यारह वर्ष की आयु में चंदाबाई आरा निवासी सम्भांत प्रसिद्ध जमींदार, जैन धर्मानुयायी पं. श्री प्रभुदास जी के पौत्र, श्री बाबू चंद्रकुमार जी के पुत्र श्री बाबू धर्मकुमार जी की सहधर्मिणी बन गई।
विवाह के एक वर्ष बाद ही चंदाबाई जी के जीवन में एक वज्रपात हुआ जब
Jain Education International
शिखरजी - यात्रा से लौटते समय धर्मकुमारजी गिरीडीह में प्लेग से आक्रांत हो गये और कुछ समय में ही मृत्यु ने उनका आलिंगन कर लिया। जीवन में मोड़
असमय में पति के निधन की घटना से बारह वर्षीया चंदाबाई को संयोगों की क्षणभंगुरतारूप जीवन के सत्य पहलू का बोध हो गया। उन्होंने मोहश्रृंखला को तोड़
दिया। पितृतुल्य ज्येष्ठ श्री देवकुमारजी ने अपनी अनुज वधू चंदाबाई को आरा बुलवा लिया। यहाँ पर उनकी ज्ञान वर्षा और पूज्य वर्गी श्री नमिसागरजी के धर्मोपदेश से वे पुनः ज्ञानार्जन में प्रवृत्त हुई। उन्होंने जैन संस्कृत साहित्य और धर्मशास्त्रों, रत्नकरण्ड श्रावकाचार तत्त्वार्थसूत्र, द्रव्यसंग्रह, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, चंद्रप्रभचरित आदि का अध्ययन पूज्य वर्णीजी के सान्निध्य में किया। काशी के समान संस्कृत शिक्षा केन्द्र, वृंदावन में कुछ समय रहकर लघु सिद्धांत कौमुदी, सिद्धांत कौमुदी आदि व्याकरण ग्रंथों का अध्ययन किया। राजकीय संस्कृत कालेज काशी की पंडित परीक्षा उत्तीर्ण की जो आज की शास्त्री परीक्षा के समकक्ष है। उनके जैन धर्म दर्शन न्याय के प्रखर पांडित्य और विलक्षण प्रतिभा के आगे बड़े-बड़े विद्वान भी मूक हो जाते थे।
प्रतिज्ञा
गहन अध्ययन के परिणामस्वरूप चंदाबाईजी के हृदय में ज्ञानदीप प्रज्वलित हो गया। उन्होंने निश्चय कर लिया कि "अब मैं सेवा के क्षेत्र में पदार्पण कर असहाय, विधवा नारी जाति को सांत्वना देते हुए उनकी हर तरह से मदद करती रहूँगी।" सेवा कार्य
डॉ. आराधना जैन 'स्वतन्त्र'
For Private & Personal Use Only
आपने श्री देवकुमारजी को प्रेरित कर अपने ही नगर में सन् 1907 में कन्या पाठशाला की स्थापना करायी। वे स्वयं देख-रेख और अध्यापन कार्य करने लगीं। वेदना संतप्त नारीजगत् की अज्ञानता को दूर करने के लिये उन्होंने सेवा के विभिन्न मार्गों को अपनाया, समस्त आर्यावर्त को कार्य क्षेत्र बनाया। उन्होंने नारी जाति को पढ़ाया, आगे बढ़ाया। अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में सम्मिलित
होकर अनेक यात्राओं के दौरान भाषण एवम् प्रवचन द्वारा महिलाओं को उनके कर्त्तव्य का बोध कराया, संगठित किया। देश सेवा
स्वतंत्रता आंदोलन में चंदाबाईजी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही वे स्वयं जेल नहीं गयीं, पर अपने भाइयों को स्वतंत्रता आंदोलन हेतु प्रेरित किया अहिंसा, सत्य सिद्धांतों के प्रचार के लिये निबंध / लेख लिखकर वितरित किये और जन-जन के हृदय में देशभक्ति / सेवा की भावना जाग्रत की। कांग्रेस तथा देश के विभिन्न कार्यों के लिये चंदा एकत्रित किया। सन् 1920 से निरंतर चरखा चलाती रहीं । विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया तथा आजीवन खादी ही धारण की।
धार्मिक क्षेत्र में योगदान
जन्म से ही धार्मिक संस्कारों से सम्पन्न चंदाबाईजी की धार्मिक कार्यों पूजनपाठ, प्रतिष्ठा महोत्सव आदि में अग्रणी भूमिका रही। उन्होंने श्री देवकुमारजी व परिवार के सदस्यों के साथ दक्षिण भारत के तीर्थों की यात्रा की । वहाँ अनेक स्थानों पर पुरुषों में श्री देवकुमारजी ने तथा महिलाओं में चंदाबाईजी ने भाषण, प्रवचन द्वारा धर्मप्रभावना की । उनके प्रवचनों का कन्नड़ अनुवाद श्री
प्रतिज्ञा को कार्यरूप देने के लिये नेभिसागरजी वर्णी करते थे।
फरवरी 2002 जिनभाषित 19
www.jainelibrary.org