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________________ 9 मार्च 2002 प्रथम पुण्यतिथि पर विशेष आलेख कर्तव्यनिष्ठा के जागरूक प्रहरी डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ब्र. त्रिलोक जैन घटनाओं का चक्र घूमता, हमें घुमाया करता है सुख-दुख की आँख मिचौली के, वह दृश्य दिखाया करता है। कहीं जलें खुशियों के दीपक, और जन्म के गीत बजें। कहीं गमों का क्रन्दन है, और वियोग के साज सजें। संसार का अटल नियम है। वर्तमान कितना भी सुन्दर हो, उसे | एक रात ब्रह्मचारी भाई इतिहास के पन्नों में सिमटना ही पड़ता है। उत्पाद का व्यय और व्यय विमल जी एवं सुरेन्द्र जी पंडित का उत्पाद संसार चक्र की मजबूरी है, पर आत्मा की अमरता शाश्वत जी के सेवा कर रहे थे, उसी है। न वह मरती है, न जन्मती है, और न ही जवान होती है, न बूढ़ी। समय मैं पहुँचा, पंडित जी को ये तो सब पर्यायें हैं, पर इनमें मनुष्य पर्याय का अपना अलग महत्त्व प्रणाम करके बैठ गया। तभी है। मनुष्य तो धरती पर बहुत हैं पर कितने हैं जो धरती के शृंगार पंडित जी ने मेरी ओर देखा - और मानवता के हार हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'आदमियों कौन त्रिलोकचंद जी बैठ जाओ। के जंगल में वन तो बस वीरान है, भीड़ है मनुष्यों की, पर बहुत | पंडित जी को देखता रहा, तभी कम इंसान हैं लाखों बच्चे रोज पैदा होते हैं और लाखों मनुष्य रोज | अचानक मेरे मुख से निकलामर जाते हैं। जन्म के समय प्रायः हर घर में खुशी मनाई जाती है, | पंडित जी आपको अपना बचपन चाहे वह घर गरीब व्यक्ति का ही क्यों न हो। कुछ नहीं तो माता | याद है, सुनकर वे मुस्करा उठे। बहिनें थाली बजा कर ही खुशियाँ मना लेती हैं। संयोग के गीत सदा बचपन किसको याद नहीं होता। बचपन तो फटे कपड़ों में भी बादशाह सुहाने लगते हैं, पर संयोग में ही वियोग की पीड़ा छिपी रहती है। होता है, गिरने में भी उठने का आनंद होता है। माँ जानकीदेवी की गोद एवं पिता श्री गल्लीलाल के घर आँगन | एक दिन आम के पेड़ के नीचे खेलते समय एक आम मिला, में पले बड़े श्रद्धेय पंडित जी की नश्वर देह आज हमारे बीच में नहीं है। | दौड़ कर माँ को दिखाया। अम्मा-अम्मा हमें आम मिला। माँ काम ज्ञान की आँच में पकी पंडित जी की आत्मा अमर लोक में ठहर गई। | में लगी थी, सुनकर बोली अच्छा, राजा बेटा- आम रख दो। एक लेकिन वर्णी गुरुकुल, जबलपुर में जो ज्ञान ज्योति प्रज्वलित की, उसका | आम और मिल जाये तो दोनों भाई मिलकर खा लेना। स्मृतियों के प्रकाश आज भी जीवंत है, और आगे भी रहेगा। यही पंडित जी के | नंदनवन में खोये पंडित जी इतने भावुक हो गये कि अतीत आँसुओं जीवन की साधना है। यही दिव्य प्रकाश, उनके जीवन को चरितार्थता | का निर्झर वन दोनों गालों पर बह चला। सुनकर सहज ही माता जी प्रदान करता है। ज्ञान की आग में जलकर कोई सूरज बने न बने, दीपक के प्रति पंडित जी का मन श्रद्धा भाव से भर गया। ठीक ही है सदाचरण, तो अवश्य बन जाता है। यह तो सर्वविदित ही है कि पारगुंवा का पन्ना | नीतिनिष्ठा एवं कर्तव्यनिष्ठा की जो शिक्षा एक माँ दे सकती है, उस और सागर का लाल 'पन्नालाल' श्रद्धेय पं. जी ने वर्णी जी की असीम | शिक्षा का एक अंश भी विश्व के सभी विश्वविद्यालय मिल कर नहीं अनुकंपा एवं सतत ज्ञानाराधना लक्ष्य के प्रति एक निष्ठ साधना के बल | दे सकते। पंडित जी कुछ ठहर कर अपने आँसुओं को पोंछते हुए पर जीवन में उस ऊँचाई को पाया, जो अहं शून्य थी। सब कुछ पाकर बोले महामारी के क्रूर कराल जबड़ों ने बचपन में पिता का साया छीन भी वे मौन थे, शायद इसीलिए आप जैन जगत के गौरव के रूप में | लिया, पर माँ के धैर्य ने मामा के सहारे, सागर में जीवन को गतिशील जाने गये। आपने शिक्षादान के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त किया, किया और यहीं पूज्य वर्णी जी कृपा का प्रसाद मिला। जो आज आप जिसके फलस्वरूप भारत के राष्ट्रपति महोदय श्री वी.वी. गिरी ने आपको लोग पा रहे हो। बोलते-बोलते पंडित जी उठ कर बैठ गये और बोलेसम्मानित कर गौरव का अनुभव किया। आपने जीवन में कई संस्थाओं | दिन चले जाते हैं, समय गुजर जाता है, परन्तु मन पर स्मृतियों की के उच्च पदों पर बैठ कर समाज सेवा के महान् कार्य किये हैं। स्मृतियों | छाप अमिट रहती है। खैर, अब आप लोग भी विश्राम करो और पंडित के आलोक में आपके जीवन पर दृष्टिपात करता हूँ तो याद आते हैं वो | जी सोने से पूर्व 'नित्याप्रकंपा...... ऋद्धि' मंत्र का पाठ करने लगे। जीवन्त क्षण, जो पंडित जी को विस्मृतियों की नगरी में भी जीवन्त | पर क्या करें, प्रात: उठकर सुप्रभात स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र, भक्तामर रखते हैं। स्तोत्र व सहस्रनाम स्तोत्र से पिसनहारी पर्वतांचल में वर्णी गुरुकुल 16 फरवरी 2002 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524259
Book TitleJinabhashita 2002 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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