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________________ के परिसर को गुंजायमान करने वाला कंठ अब मौन हो गया है, भक्ति | जी का जीवन इतना समयपाबंद था कि उनकी दैनिकचर्या से लोग रस में झूमता हाथ, अब आँखों से ओझल हो गया है। जिस व्हील | अपनी घड़ी मिला लिया करते थे। चेयर पर मंदिर आते-जाते मंद-मंद मुस्कराते श्रद्धेय गुरुवर ने अंतिम | एक दोपहर घड़ी ने जैसे बारह बजाये, मैं अपने विद्यार्थी साथियों दिन तक देवपूजा, सामायिक, स्वाध्याय आदि करके गुरु मिलन की | के साथ क्लास में पहुँचा। पंडित जी को प्रणाम किया और सभी आकांक्षा में कुंडलपुर पहुंचे, वह आज सूनी पड़ी है। ब्रह्मचारी भाई बैठ गये। पंडित जी का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं दिख पंडित जी उस मेंढ़क की भाँति थे जो कमल के फूल की पाँखुरी रहा था, मैंने पूछा पंडित जी आपका स्वास्थ्य तो ठीक है? पंडित मुँह में दबा कर भगवान् महावीर स्वामी के समवशरण में प्रभुदर्शन | जी बोले आज बुखार सा लग रहा है और देखा तो पंडित जी को की चाह में जाता हुआ रास्ते में ही हाथी के पाँव के नीचे दब कर | बुखार था। हम लोग पंडित जी को लिटा कर सेवा उपरांत अपने कक्षों मरा और अमर अर्थात् देव हो गया। ठीक इसी प्रकार बड़े बाबा एवं | में चले गये। कोई 10 मिनट के बाद पंडित जी ने घंटी बजाई और छोटे बाबा (आचार्य श्री विद्यासागर) की दर्शन की लालसा लिये पंडित | हम लोग दौड़ कर पंडित जी के पास पहुँचे और प्रणाम करके पूछाजी कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र पहुँचे, पर श्वासों की डोर पर उनका बस न | पंडित जी साब कुछ जरूरत है? पंडित जी इसके उत्तर में जो बोले चला और भोर होने से पहले ही अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान का प्रकाश | वह भारत के हर शिक्षक को सुने जैसा है। पंडित जी बोले- पूर्व पर्याय बिखेरने वाला दिवाकर, सूरज के आने के पूर्व ही प्रभु और गुरु मिलन | में जाने कौन से पाप किये थे कि आज तनख्वाह लेकर धर्म पढ़ाना की चाह का दिव्य उजाला लिये हम सबको पीड़ा के सागर में डुबो | पड़ रहा है और अपने कर्त्तव्य में आज प्रमाद करोगे तो फिर जाने गया। लेकिन ध्यान रहे, ज्ञान कभी मरता नहीं है। पंडित जी का ज्ञान | आगे हमारा क्या होगा। इसके बाद पंडित जी ने वेतन लेने का त्याग जैन पुराणों के आकाश में दिव्य सूर्य की तरह चमकता रहेगा। कर दिया। वियोग के इन क्षणों में पंडित जी के साथ बिताये संयोग के | पिछले दो-तीन वर्षों में पंडित जी को लगातार बैठने में पीड़ा अमूल्य क्षणों के प्रकाश में आज भी साफ-साफ देख रहा हूँ कि साँज | होती थी, फिर भी वे 4-6 घंटे प्रतिदिन पढ़ते-पढ़ाते रहते थे। आपके भ्रमण कर लौट रहा था, पंडित जी के पास पहुँचा तो देखा एक हाथ | संपूर्ण जीवन पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि आप कर्त्तव्यनिष्ठा टेबिल पर रखा, एक हाथ में कलम लिये अपनी ग्रीवा से लगाये | के जागरूक प्रहरी थे और अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव सजग रहते आकाश की ओर देख रहे हैं और आँखों से बहे करुणा बिन्दु गालों | थे। आपके ऊपर कोई अधिकारी नहीं था जो आपकी ड्यूटी को देखता, पर दिव्य मोतियों की तरह चमक रहे हैं। मेरी आहट पा विचार लोक | फिर भी आप प्रतिदिन अपनी दैनन्दिनी लिखते थे कि आज कितने से लौटे और चौंकते हुये बोले - आओ भैया, कहकर पेन नीचे रख | शिष्य पढ़ाये और कितना पाठ चला। दिया। मैंने चरणस्पर्श कर प्रणाम किया और पूछ लिया- आँखों से श्रद्धेय पंडित जी की धर्मपत्नी सुन्दरबाई जी एक दिन आम गंगा-जमुना बहने का कारण? तो वे बोले- एक छोटा लड़का आया | के वृक्ष के नीचे बैठी गुरुकुल की ओर देख रही थी। मैंने बाई जी था, बहुत देर तक खड़ा-खड़ा रोटी माँगता रहा और रोटी हमारे पास | को प्रणाम कर कहा- क्या सोच रही हो, बाईजी? तब वे बोलीं क्या थी नहीं। पंडित जी ने आँसू पोंछते हुये कहा- भइया, किसी को गरीबी करें, सुबह पंडित जी को भोजन करा दो, दोपहर में एक गिलास पानी न मिले। चलो, मंदिर चलें। यह उनके संवेदनशील जीवन की | और संध्या को जलपान दे दो, बाकी समय दिवालों से बातें करते करुणामयी कहानी है। रहो। मैं सुनकर हँस दिया और कहा- बाई जी जिनवाणी की सेवा हो सन् 1988 की बात है, जब पंडित जी मढ़िया जी के 44 | रही है, पुण्य आपको भी मिलेगा। सन् 1989 में बाई जी के मरणोपरांत नम्बर कमरे में रहते थे। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी ससंघ, | पंडित जी ने सुनाया था कि सागर में आचार्य श्री शान्तिसागर जी गुरुकुल भवन में विराजमान थे। सुबह आहार-चर्या के लिए मुनि संघ | ने एकपत्नीव्रत पर व्याख्यान दिया, सुनकर हमने हाथ उठा दिया। सामने स्थित महावीर जिनालय से निकलता था। पं. जी के कमरे के बाद में मित्रों ने हास्य किया, यदि पत्नी मर गयी तो क्या करोगे। सामने श्रावकगण पड़गाहन के लिए खड़े होते और आचार्यश्री के | पंडित जी बोले अब तो नियम ले लिया बाईजी ने हमारा खूब साथ निकलते ही 'स्वामी! नमोस्तु-नमोस्तु' से आकाश गुंजा देते। पं. जी निभाया। उल्लेखनीय है कि बाईजी ने पंडित जी की साहित्य साधना, प्रतिदिन अपना स्टूल सरका कर दरवाजे पर बैठ जाते और आहारचर्या धर्म साधना एवं सामाजिक कार्यों में उनका कदम से कदम मिलाकर देखते, यह नित्य क्रम था। पर एक दिन विचार किया कि साधु घर | परछाई की तरह साथ दिया। यह उनका अप्रत्यक्षरूप से अतिमहत्वपूर्ण के सामने से निकलते हैं। और शरीर की असमर्थता के कारण पड़गाहन योगदान था। में खड़े नहीं हो पाते। पंडित जी इतने विह्वल हुये कि तुरंत शहर में आपके विषय में कहा जाता है कि आप अजातशत्रु थे। आपका रिश्तेदारों को फोन करवाया और सागर से अपनी धर्मपत्नी सुन्दरबाई | कोई शत्रु न था। आप समाज में सर्वमान्य रहे। आपके तेज बोल कभी जी को बुलवाया और दूसरे दिन स्वयं शुद्ध वस्त्र पहनकर असमर्थता | किसी ने नहीं सुने, पर मुझे आपको कठोर रूप का सामना करना के बावजूद बेंत के सहारे पड़गाहन के लिए खड़े हुए और मुनिराज | पड़ा। बात 1991 की है। मैं पर्वराज पर्युषण में डिण्डोरी जाने की को आहार दान देकर ही संतोष की साँस ली। ऐसी थी, पंडित जी | तैयारी कर रहा था। मुझे दोपहर 1 बजे निकलना था, रात्रि 4 बजे की गुरुभक्ति और कर्त्तव्यनिष्ठा। कर्त्तव्यनिष्ठा के आलोक में पंडित | से अपना टेप चालू किया और अपने शास्त्र संग्रह को व्यवस्थित करना -फरवरी 2002 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524259
Book TitleJinabhashita 2002 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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