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________________ अगर उठो तो बनो हिमालय श्रीपाल जैन 'दिवा' अगर उठो तो बनो हिमालय गहरे सागर हो जाओ व्यापक नभ से बनकर भी तुम लदी डाल से झुक जाओ। फूल बनो काँटों के घर में खिलकर सौरभ भर जाओ नीरस हृदय उपेक्षित जग में मकरन्दी रस भर जाओ। सरिता से शीतल परहित में तृप्ति दे बहते जाओ धरणी सी ममता-समता धर वेदन को सहते जाओ। की हालत यह है कि ट्रेन हो या बस अथवा | जनमानस तैय्यार किया है। न्यायालय की वायुयान, यात्रा करने वालों की भीड़ सम्हाले शरण में भी पहुंचे हैं और इन सबके नहीं सम्हलती। फलस्वरूप पर्यावरण के प्रति लोगों में पर दूसरी बात, जो कि महानगरों में जागरूकता इस कदर बढ़ी है कि नर्सरी के जनसंख्या के घनत्व से संबंधित है, ज्यादा | बच्चे वर्णमाला सीखते ही सी.एन.जी.. स्पष्ट नहीं हो सकी है। यद्यपि लोग यह मानते एल.एस.डी. और पी.आई.एल. का उच्चारण हैं कि शनैः - शनैः महानगरों की हवा में सांस धड़ल्ले से करने लगे हैं। प्रायमरी में पढ़ने वाले लेना दुष्कर होता जा रहा है, फिर भी लोग विद्यार्थियों को इन शब्दों का फुल फार्म चेतने का नाम नहीं ले रहे। भीड़ जो है सो | लिखने का होम-वर्क दिया जाने लगा है और 'बैल को मारने हेतु आमंत्रित करते हुए.' हवा के रासायनिक विश्लेषण की चर्चा पान बढ़ती ही जा रही है। यह बात समझ से सर्वथा की दुकान पर होने लगी है। एक महानगर में, परे है कि इतनी परेशानियाँ होने के बावजूद बस और टैक्सी के चालक रात-रात भर लोग महानगर की गसा-पसी में रहने क्यों जागकर अपने-अपने वाहन में सी.एन.जी. चले आ रहे हैं? जबकि देश में तमाम खुली भरवाते हैं और दिन भर सोते-सोते वाहन जगहें खाली पड़ी हुई हैं जहाँ फैल-फुट्ट होकर चलाते हैं। जब कभी आराम करने का मूड बड़े आराम से रहा जा सकता है। हुआ, हड़ताल पर चले जाते हैं। हर्ष का विषय है कि देर से ही सही, इस तरह, सभी लोगों ने, इस समस्या पर अब कुछ मनीषियों ने समस्या की को चारों ओर से घेर कर निपटने के जो प्रयास गंभीरता को पहचाना है। ज्यादातर मामलों में किए उसके फलस्वरूप तकरीबन वहीं यात्रा की निरर्थकता को माना है। भाग-दौड़ परिस्थितियाँ पुनर्जीवित हो गई हैं जिनके में निष्प्रयोजनता को स्वीकार किया है। इन कारण कि लोग यात्रा पर जाते समय अपने सबको दृष्टिगत रखते हुए, समस्या के हल प्रियजनों से अन्तिम विदा लेकर ही चला की दिशा में चहल-कदमी आरम्भ की है। करते थे। सरकार भी इस समस्या से अनभिज्ञ नहीं है। यह स्थिति निश्चय ही मानव हित में है। दरअसल इसे संयोग कहा जाये अथवा एक वस्तुतः स्वाभाविक रूप से मनुष्य का जीवन भली-भाँति सोची-समझी नीति कि जिसके व्यतीत करने हेतु जो अधिकतम आवश्यक अन्तर्गत सरकार ने, कई एक मामलों में है, उसके संदर्भ में मुझे एक पुराने फिल्मी पूर्णतः निष्क्रिय रहते हुए, इस समस्या के गीत वह पंक्ति याद आती है जिसमें कहा समाधान में महान् योगदान दिया है। मसलन, गया है कि 'चार रोटियाँ एक लंगोटी बाकी पुरानी पड़ गई रेल की पटरियों को बदलने सब बकवास है।' वाह! कितनी सारगर्भित की योजना समय रहते क्रियान्वित न कर तथा बात कही गई है। इस कथन से स्पष्ट होता सदियों पुराने रेल्वे के पुलों के नवीनीकरण हेतु है कि आदमी को जीने के लिये जो चाहिए आवश्यक धन मुहैय्या न कराकर, सरकार ने वह मूलतः खेतों में पैदा होता है अनाज भी, परोक्ष रूप से ही सही, लोगों को यात्रा करने कपास भी। अतः नगरों-महानगरों में बसने से निश्चय ही हतोत्साहित किया है। सड़क के। अथवा रेलों, बसों, वायुयानों में बेतहाशा मामले में भी सरकारी रुख इतर नहीं रहा है। भीड़ खड़ी कर देने का कारण आदमी की गड्ढों की बढ़ती हुई संख्या व गहराई के प्रति बुनियादी जरूरतों को पूरा करना तो कतई वर्षों उदासीन रहकर सरकार ने वाहनों की नहीं लगता। इसके पीछे अवश्य ही कुछ गति न्यूनतम रखवाने का सफल प्रयास किया ज्यादा पाने की लालसा नजर आती है। लोभ नजर आता है। लालच नजर आती है। इसी श्रृंखला में आम लोगों ने भी जब- महात्मा कबीर, रूखी-सूखी नोन के जिसकी-जहाँ-जैसी इच्छा हुई, रेल रोको साथ खाते हए, ताजिंदगी संतष्ट रहे और कह अथवा चक्का जाम अभियान आयोजित कर गए कि जिसे संतोष धन मिल गया उसे और परिवहन के सभी साधनों की अनित्यता कुछ दरकार नहीं। इस सिद्धांत के अंतर्गत जो उजागर करने में अपना विनम्र योगदान दिया लोग शान्ति से अपने गाँवों में रह रहे हैं, जो है। जिन मनीषियों का जिक्र मैंने ऊपर किया इधर-उधर जाने का लोभ नहीं पाल रहे, उनके है उन्होंने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रदूषण का बारे में यह कहना उचित ही होगा कि धन्य मुद्दा हाथ में लिया है। अनवरत धुआँ उगलकर हैं वे लोग जो शान्ति से रह लेते हैं। हवा में जहर घोल रहे वाहनों के विरुद्ध 7/56-ए, मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम), भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़,490020 22 सितम्बर 2001 जिनभाषित - बनो तो कंचन से बनकर तुम नग से उस में जड़ जाओ राह गढ़ो जग हित सत्पथ में न्याय-नीति हित अड़ जाओ। पवन प्राण से बनकर जग के साँस-साँस में बस जाओ मलय त्रिवेणी बहा-बहाकर स्नेह सलिल बन बह जाओ। जीवन वह जिसको जग जाने काम सुनामी कर जाओ करो कर्म की खेती ऐसी स्व-पर वेदना हर जाओ। श्रम का मूल्य चुकाना पावन स्वेद बहा समता गाओ तूफानों के बीच हिमालय बनकर, साहस दिखलाओ। शाकाहार सदन एल-75, केशर कुंज, हर्षवर्धन नगर, भोपाल-3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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