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________________ पर्व में इतिहास-लेखन की परम्परा न थी. इस | गतिरोध उत्पन्न कर दिये थे, खारवेल ने | रहा कि परवर्ती युगों में वहाँ के कदम्ब, गंग. कारण साक्ष्यों के अभाव में यह ज्ञात न हो | उनसे क्रोधित होकर उस महासंघ को कठोर | होयसल, पाण्ड्य, चोल, पल्लव, रट्ट, सका कि सुदूर-दक्षिण में उसका प्रचार-प्रसार सबक सिखाया और उन संघीय राज्यों में सांतर, चालुक्य एवं राष्ट्रकूट आदि राजवंश करने में आचार्य भद्रबाहु से भी पूर्व किन- जैनधर्म को यथावत् विकसित एवं प्रचारित या तो परम्परया जैनधर्मानुयायी रहे अथवा किन मुनि-आचार्यों का योगदान रहा होगा? होने का पुनः अवसर प्रदान किया। उसी का उसके परमहितैषी बनकर उन्होंने उसके आचार्य भद्रबाहु को इसकी जानकारी सुफल है कि तमिल एवं कर्नाटक ने आगे साधक आचार्यों एवं शिल्पकारों को सुविधारही होगी। यही कारण है कि मगध के चलकर जैनधर्म की जो बहुमुखी सेवा की, . सम्पन्न आश्रयस्थल दिये और भक्तिपूर्वक द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के समय उन्होंने वह जैन इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय उन्हें लेखन-सुविधाएँ भी प्रदान की। फलतः ससंघ दक्षिण भारत की यात्रा ही उपयुक्त बन गया। इन प्रान्तों का प्रारंभिक जैन साहित्य वहाँ के सार्थक मनीषियों ने भी तमिल, समझी। जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है, एक ओर जहाँ स्थानीय बोलियों में लिखित | कन्नड़, संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश में उनकी इस यात्रा में उनके जाने का मार्ग कहाँ- साहित्य का मुकुटमणि माना गया, वहीं वह उच्चस्तरीय विविध विधाओं एवं विषयों का कहाँ से रहा होगा तथा कितने महीनों में उन्होंने (साहित्य) कन्नड़ जैनकवियों द्वारा लिखित विभिन्न शैलियों में शास्त्रीय एवं लौकिक इस यात्रा को तय किया होगा, दुर्भाग्य से चतुर्विध अनुयोग साहित्य का भी सिरमौर विपुल साहित्य का प्रणयन किया। ऐसे इसकी जानकारी अभी तक नहीं मिल सकी माना गया। साहित्य के इतिहासकारों की महामहिम आचार्यों की श्रृंखला बड़ी ही है। महाकवि कालिदास के विरही यक्ष ने जिस मान्यता है कि प्रारंभिक तमिल एवं कन्नड़ विस्तृत है, जिसमें सेमेघ को अपना दूत बनाकर अपनी विरहिणी बोलियों को आद्यकालीन जैन-लेखकों ने ही शैरसेनी प्राकृत में आचार्य कुन्दकुन्द यक्षिणी की खोज के लिये भेजा था, उसके काव्य-भाषा के योग्य बनने का सामर्थ्य प्रदान (ई.पू. प्रथम सदी के लगभग), स्वामी जाने के आकाश-मार्ग तक का पता विद्वानों किया है। इस प्रकार सम्राट खारवेल द्वारा कार्तिकेय (तीसरी सदी के लगभग), आचार्य ने लगा लिया, किन्तु यह एक दुखद प्रसंग स्थापित उक्त परम्परा कर्नाटक में 10वीं- नेमिचन्द्र (10वीं सदी ई.) एवं वसुनन्दि है कि आचार्य भद्रबाहु की दक्षिण-यात्रा के 11वीं सदी तक अन्तर्वर्ती जल-स्रोतों के (12वीं सदी पूर्वार्ध), संस्कृत में आचार्य स्थल-मार्ग तक का पता विद्वान् लोग अभी प्रवाह के समान अबाध गति से चलती रही। उमास्वामी (दूसरी सदी), देवनन्दि पूज्यपाद तक नहीं लगा सके हैं और न ही किसी का यह भी विचारणीय है कि खारवेल ने (5वीं सदी), भट्ट अकलंक (745-756 ध्यान भी उस ओर जा रहा है। कलिंग में जो विराट जैन सम्मेलन बुलाया ई.) रविषेण (8वीं सदी), स्वामी वीरसेन हाथीगुम्फा-शिलालेख के अनुसार सम्राट था, क्या वह तमिरदेह संघात'' के द्वारा की (सन् 816 ई.), जिनसेन (8वीं सदी), खारवेल (ई.पू. द्वितीय सदी) ने अपनी गई जैनधर्म के ह्रास एवं जैनागमों की | गणितज्ञ महावीराचार्य (8वीं सदी), गुणभद्र दिग्विजय के प्रसंग में दक्षिणापथ के कई क्षतिपूर्ति के विषय में विचारार्थ तथा आगे (9वीं सदी), सोमदेव सूरि (10वीं सदी), राज्यों पर विजय प्राप्त की थी। यद्यपि उस के लिये योजना-बद्ध सुरक्षात्मक एवं विका- आचार्य विद्यानन्दि (10वीं सदी), प्रभाचसमय के भूगोल की राजनैतिक सीमा रेखाएँ सात्मक कार्यक्रमों के संचालन की दृष्टि से तो न्द्राचार्य (10वीं सदी), श्रीधराचार्य ज्योतिषी स्पष्ट नहीं हैं, किन्तु खारवेल-शिलालेख में आयोजित नहीं था? अन्यथा, वह देश के (10वीं सदी), आयुर्वेदज्ञ आचार्य उग्रादित्य जिस दक्षिणापथ पर विजय प्राप्त करने की कोने-कोने से, सभी दिशाओं से लाखों की | (10वीं सदी), इतिहासकार वादिराज सूरि बात कही गई है, उसमें वे ही देश आते हैं, संख्या (सत सहसानि) में महातपस्वी मुनि- | (11वीं सदी), मल्लिषेण सूरि (11वीं सदी) जिन्हें वर्तमान में भूगोल-शास्त्रियों ने आन्ध्र, आचार्यों से पधारने का अनुरोध कर उनका | इतिहासज्ञ आचार्य-प्रवर-इन्द्रनन्दि (12वीं कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिल, केरल एवं सिंहल सम्मेलन क्यों करता? तथा उनसे उसमें | सदी), मुनिचन्द्र देव (13 वीं सदी), (श्रीलंका) देश कहा है। खारवेल के शिलालेख मौर्यकाल में उच्छिन्न 'चोयट्ठि' (द्वादशांग- | अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू (7वीं सदी), में जो एक विशेष बात कही गई है वह यह वाणी) का वाचन-प्रवचन करने का सादर | पुष्पदन्त (10वीं सदी एवं (धवल 11वीं कि, उसने (खारवेल ने) अपनी दिग्विजय के निवेदन क्यों करता? यह यक्ष-प्रश्न गम्भीरता सदी), कन्नड़ के आद्य चम्पूकार आदि-पम्प क्रम में दक्षिणापथ के 1300 वर्षों से चले पूर्वक विचार करने का है। इन तथ्यों से स्पष्ट (947 ई.), काव्य-सुधा-धारा को प्रवाहित आये एक जबर्दस्त संघात का भी भेद कर होता है कि कर्नाटक सहित दक्षिण भारत में करने वाले रत्न (949 ई.), माइथोदिया था। इस संघात अथवा महासंघ में | जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का काल और अधिक | हिस्टोरियन-पोन्न (950 ई.). चामुण्डराय तत्कालीन सुप्रसिद्ध राज्य-चोल, पाण्ड्य, नहीं, तो कम से कम (150+1300 = (978 ई.), दिवाकर नन्दी (1062 ई.), सत्यपत्र केरलपत्र तथा ताम्रपर्णी (सिंहल) | 1450) ई. पू. अथवा तीर्थकर पार्श्व से भी | शान्तिनाथ (1068 ई.). कविनागचन्द्र के राज्य सम्मिलित थे तथा यह महासंघ | पूर्वकालीन रहा होगा। (अभिनव पम्प, नागवर्मा द्वितीय, लगभग 'तमिल-संघात' (United States of दक्षिणापथ में आक्रमण के प्रसंग में 1100 ई.), महान् कवियित्री कन्ती (लगTamil) के नाम से प्रसिद्ध था।' खारवेल ने कर्नाटक एवं वनवासी प्रदेश के | भग 1100 ई.), राजादित्य (सन् 1100 मेरी दृष्टि से खारवेल का यह आक्रमण राजाओं पर आक्रमण कर उन्हें भी अपने | ई.), नयसेन (सन् ।।12 ई.), कीत्तिवर्मा केवल राजनैतिक ही नहीं था बल्कि जैनधर्म | अधिकार में कर लिया था और वहाँ भी उसने | (सन् 1125 ई.). ब्रह्मशिव (लगभग के विरोधियों ने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में अपनी विचारधारा की अमिट छाप छोड़ी थी। | 1125 ई.), कर्णपार्य (सन् 1140 ई.), उक्त तमिल-महासंघ के माध्यम से जो कुछ | सम्भवतः यह उसी का दीर्घगामी प्रेरक प्रभाव | नागचन्द्र कवि (सन् 1145 ई.), नेमिचन्द्र -सितम्बर 2001 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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