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________________ जैन संस्कृति एवं साहित्य के विकास में कर्नाटक का योगदान प्रो. डॉ. राजाराम जैन जब मैं प्राच्यकालीन जैन इतिहास एवं । परम्परा अगली पीढियों के लिये कछ वर्षों | अक्षरों में पर्याप्त समानता है।'' संस्कृति पर विचार करता हूँ, तो सोचता हूँ तक निःसृत होती रही। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर कि यदि ई.पू. चौथी सदी के मध्यकाल में यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि | तिरुवल्लुवर कृत 'कुरल-काव्य' और व्याकमगध के द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के आचार्य भद्रबाहु ने प्राकृतिक विपत्तिकाल में रण ग्रन्थ 'तोलकप्पियम्' जैसे तमिल के समय आचार्य भद्रबाहु ने दक्षिण भारत में दिगम्बरत्व की सुरक्षा के लिये दक्षिण भारत गौरवग्रन्थों पर जैनधर्म का पूर्ण प्रभाव है। इस ससंघ विहार न किया होता, तो जैनधर्म का | ही क्यों चुना? वे अन्यत्र क्यों नहीं गये? मेरा कारण इतिहासज्ञ विद्वानों की यह मान्यता है इतिहास सम्भवतः वैसा न बन पाता, जैसा जहाँ तक अध्ययन है, जैन-साहित्य में कि वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म के प्रभाव के कि आज उपलब्ध है। एतद्विषयक उसके साक्ष्य-सन्दर्भ अनुपलब्ध पदार्पण के पूर्व ही तमिल-प्रान्त में जैनधर्म धन्य है वे आचार्य भद्रबाहु, जिन्होंने का प्रवेश हो चुका था। कुछ विद्वानों की यह दुष्काल की भीषणता तथा दिगम्बरत्व की बौद्धों के इतिहास-ग्रंथो- 'महावंश' में भी मान्यता है कि तमिल के शास्त्रीय कोटि हानि का विचार कर मगध से दक्षिण-भारत (जिसका रचनाकाल सन् 461-479 है) के आद्य महाकाव्यों में से एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ की ओर विहार किया। यद्यपि हमारा इतिहास ई.पू. 543 से ई.पू. 301 तक के सिहल 'नालडियार' में उन आठ सहस्र जैनमुनियों इस विषय पर मौन है कि उनके विहार का देश के इतिहास का वर्णन किया गया है। की रचनाएँ प्रथित हैं, जो पाण्ड्य नरेश की मार्ग कहाँ-कहाँ से होकर रहा होगा? वस्तुतः उसमें ई.पू. 467 की सिहल (वर्तमान इच्छा के विरुद्ध पाण्ड्य-देश छोड़कर अन्यत्र यह स्वतंत्र रूप से एक गहन विचारणीय श्रीलंका) की राजधानी अनुराधापुरा के वर्णन विहार करने जा रहे थे। यह ग्रन्थ तत्कालीन विषय है, किन्तु मेरी दृष्टि से वे, पाटलिपुत्र क्रम में बतलाया गया है कि वहाँ के अनेक पाण्ड्य-देश में लिखा गया था। से विहार कर वर्तमानकालीन उत्तरप्रदेश, गगनचुंबी भवनों में से एक भवन, तत्कालीन कलिंग के चक्रवर्ती जैन-सम्राट खारमध्यप्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र होते हुए राजा पाण्डुकाभय ने वहाँ विचरण करने वाले | वेल ने अपने हाथीगुम्फा शिलालेख में लिखा कर्नाटक के कटवप्र नाम के एक निर्जन वन अनेक निर्ग्रन्थों के लिये बनावाकर उन्हें भी है कि 'मगध-नरेश नन्द 300 वर्ष पूर्व में पधारे होंगे। चूँकि भद्रबाहु के जीवन का | समर्पित किया था। कलिंग से जिस ‘कलिंग-जिन' को छीनकर वह अंतिम चरण था, अतः उन्होंने अपने | महावंश के उक्त संदर्भ से यह स्पष्ट मगध में ले गये थे, उसे मैंने उनसे वापिस वरिष्ठ शिष्य आचार्य विशाख को गणाधिपति | है कि ई.पू. 5वीं सदी में सिंहल देश में लाकर कलिंग में पुनः स्थापित कर दिया है। घोषित कर उन्हें दिगम्बरत्व की सुरक्षा तथा | निर्ग्रन्थ धर्म अर्थात् जैनधर्म का अच्छा प्रचार खारवेल का समय ई.पू. दूसरी सदी का जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के लिये ससंघ दक्षिण | था और कुछ चिन्तक-विद्वानों का यह कथन मध्यकाल है। इस तथ्य का गहन अध्ययन कर के सीमान्त तक अर्थात् तत्कालीन पाण्ड्य, तर्कसंगत भी लगता है कि कर्नाटक, आन्ध्र, डॉ. के.पी. जायसवाल ने लिखा है कि चेर, चोल एवं ताम्रपर्णी के राज्यों में विहार तमिल एवं केरल होता हुआ ही जैन धर्म 'कलिंग (वर्तमान उड़ीसा) में जैनधर्म का करने का आदेश दिया। यह तथ्य है कि सिंहल में प्रविष्ट हुआ होगा। तमिल-जनपद प्रवेश शिशुनाग वंशी राजा नन्दिवर्धन के आचार्य विशाख के ससंघ विहार करने के के मदुराई और रामनाङ् में ब्राह्मी-लिपि में समय में हो चुका था। खारवेल के समय के बाद आचार्य भद्रबाहु ने अपने अंतिम समय महत्त्वपूर्ण कुछ प्राचीन प्राकृत-शिलालेख पूर्व भी उदयगिरि (कलिंग) पर्वत पर में स्वयं एकान्तवास कर सल्लेखना धारण उपलब्ध हुए हैं। उन्हीं के समीप जैन मंदिरों अरिहन्तों के मंदिर थे, क्योंकि उनका उल्लेख करने का निर्णय किया था, किन्तु नवदीक्षित के अवशेष तथा तीन-तीन छत्रों से विभूषित खारवेल के शिलालेख में हुआ है। इन तथ्यों मुनिराज चन्द्रगुप्त अपनी भक्ति के अतिरेक अनेक पार्श्वमूर्तियाँ भी मिली हैं। इन प्रमाणों से यह स्पष्ट विदित होता है कि खारवेल के के कारण आचार्य भद्रबाहु की वैयावृत्ति हेतु के आधार पर सुप्रसिद्ध पुराविद् डॉ. सी.एन, पूर्व भी कई शताब्दियों तक जैनधर्म कलिंग उन्हीं की सेवा में उनके पास रह गये थे। राव का कथन है कि- 'ई.प. चतर्थ सटी में | का राष्ट्र-धर्म रहा था। उनके इस कथन से यह वह काल है, जब भारत में लेखन जैनधर्म ने तमिल के साथ-साथ सिंहल को प्रतीत होता है कि तीर्थकरों की सिद्ध एवं की परम्परा प्रचलित न थी। गुरु-शिष्य द्वारा भी विशेष रूप से प्रभावित किया था। उनके अनेक तीर्थकरों की जन्मभूमि बिहार से यह कण्ठ- परम्परा से श्रुतागमों का स्मरण रखा कथन का एक आधार यह भी है कि- "सिंहल जैनधर्म बंगाल, कलिंग, आन्ध्र, तमिल एवं जाना ही पर्याप्त था। इसी कारण स्वाध्याय, देश में उपलब्ध गुहालेखों की अक्षर-शैली केरल होता हुआ सिंहल देश तक पहुँचा होगा। चिन्तन-मनन एवं प्रवचनों से श्रुतज्ञान की | और तमिलनाडु के पूर्वोक्त ब्राह्मी-लेखों के जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है - 16 सितम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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