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________________ पा-विज्ञानियों का है अपितु प्राश 2. sus (सन् ।।70 ई.), एरडनेय नागवर्मा (द्वितीय | पद्मनाभ (1680 ई.), प्रभृति आचार्य | खारवेल द्वारा स्थापित उसकी दूर दृष्टि 12वीं सदी), सोमनाथ (1150 ई.), | लेखक प्रमुख हैं और जिन्होंने शाश्वत कोटि | सम्पन्न सांस्कृतिक चेतना की प्रभावक वृत्तविलास (सन् 1160 ई.), कवि बाल- के उच्चस्तरीय ऐसे साहित्य की रचना की, वेगवती प्रच्छन्न प्रवाहित धारा ही प्रतीत होती चन्द्र (1170 ई.), वोप्पण (1180ई.) जो आज भी इतिहासकारों, लेखकों, समीकोप्पण, आगल (1189 ई.) आचण्ण क्षकों, भाषा-विज्ञानियों एवं दार्शनिकों के | संदर्भग्रन्थ सूची - (1195 ई.), बन्धुवर्मा (सन् 1200 ई.), लिये न केवल प्रकाश-स्तम्भ हैं अपितु प्राच्य 1. महावश - 10/97-1000 पार्श्व पंडित (1205 ई.), जनन (1209 भारतीय-विद्या के गौरव के स्वर्णिम अग्रशि- 2. Studies in South Indian Jainism ई.), गुणवर्मा द्वितीय (1235 ई.), कम- खर भी माने गये हैं। वीर वेनेय, सेनापति and Jain Epigraphs, P.29 लनव (1235 ई.), महाबल (सन् 1254 चामुण्डराय, महामंत्री भरत एवं नन्न आदि 3. दक्षिण भारत में जैन धर्म, पृष्ठ 4 ई.), पार्श्व पंडित (1205 ई.), जन्न जैन वीरों तथा कर्नाटक की नेक आदर्श 4. हाथी गुम्फा-शिलालेख, पृष्ठ स. ।। (1209 ई.), गुणवर्मा द्वितीय (1235 जागृत महिलाओं में महासति अत्तिमब्बे, 5. ना.प्र. पत्रिका अंक8/3, सन् 1928 ई.), कमलनव (1235 ई.), महाबल (सन् जक्कयव्वे, पामव्वे, पम्पादेवी आदि को 16. दे. हाथीगुम्फा-शिलालेख, पृ.सं. 10 1254 ई.), कवि बालचन्द्र (1170ई.), पराक्रमी, राष्ट्रवादी एव जिनवाणी भक्त 17. दे. उड़ीसा रिव्यू.. दिस. 1998. पृ. 14 बाहुबलि पण्डित (1340 ई.), षट्पदिसा- | बनाने तथा सामाजिक सुधारों में उन्हें अग्रणी | 8. दे. हाथीगुम्फा - शिलालेख, पृ. स. 16 हित्यकार रत्नाकर वर्णी (1557 ई.), महान बनाने में कर्नाटक की पुण्यभागा तीर्थरूपा | 9. दे. वही , पृ.स. ।। . सांगत्य साहित्यकार चन्द्रम् (1605 ई.). | पृथिवी तो है ही, परोक्ष रूप से सम्राट | 10, वही , पृ.स. 16. आर्यिका नवधा भक्ति विवाद नहीं, चर्चा पं. मूलचन्द लुहाड़िया जैन जगत के प्रसिद्ध विद्वान पं. शिवचरण लाल जी मैनपुरी | देखा जा रहा है? ये तो धार्मिक चर्चाएँ है जो सदा से होती आई है का एक लघु लेख जैन पत्रिकाओं में छपा है 'आर्यिका नवधा भक्ति | और आगे भी होती रहनी चाहिए। क्या आप चाहते है कि किसी बिन्दु : विवाद से विराम अभीष्ट' पढ़कर आश्चर्य भी हुआ और खेद भी। | पर मतभेद होने पर प्रेम भाव से उस पर चर्चाएँ न हो? अन्यथा तो प.पू. आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा रचित 'जयोदय' ग्रंथ के एक दूसरे के विचारों का परस्पर आदान प्रदान ही नहीं हो पाएगा और एक श्लोक का असमीचीन अर्थ करते हुए उक्त कथन को अंतिम जन साधारण को समाधान प्राप्त करने का मार्ग ही बंद हो जायेगा निर्णय के रूप में स्वीकार करने की प्रेरणा देते हुए वे विवाद का विराम तथापि यह आवश्यक है कि ऐसी चर्चाएँ कभी विवाद का रूप नहीं चाहते हैं। लेवें। अपना पूर्वाग्रह छोड़कर निष्कषाय भाव से समाधान प्राप्ति के पहली बात तो यह है कि श्लोक में गृहस्थों द्वारा यतियों/मुनियों | सदुद्देश्य से की जानी वाली चर्चाएँ कभी विवाद नहीं बन सकती। को नवधा भक्ति पूर्वक दान का प्रसंग है। उसमें मूल में तो यतियों | विवाद तो द्वेष और अहंकार की भूमि पर उत्पन्न होता है और उस को भोजन, उपकरण, औषदि शास्त्र आदि श्रद्धा पूर्वक एवं नवधा अंकुरित विवाद को यदि पूर्वाग्रह का खाद पानी मिल जाये तो धीरे-धीरे भक्तिपूर्वक दान देने की बात लिखी है। स्वोपज्ञ टीका में उपकरण वह पुष्ट पौधे और फिर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। क्या हम के विशेणार्थ में वस्त्र पात्रादि उपकरण लिखा है। यतियों को शास्त्र की निष्कषाय भाव से धार्मिक विषयों पर परस्पर वात्सल्य भाव रखते सुरक्षा के लिये वस्त्र उपकरण के रूप में ग्राह्य हो सकता है, किन्तु हुए शालीन शब्दों के प्रयोग के साथ चर्चा करने के अभ्यासी नहीं यहाँ आर्यिकाओं का तो प्रसंग ही नहीं हैं। इसके अतिरिक्त आर्यिकाओं बन सकते? को वस्त्र उपकरण के रूप में दिया भी नहीं जाता। वे वस्त्र परिग्रह यदि कदाचित इस चर्चा को आप विवाद मानते भी हैं तो आपके के रूप में ग्रहण करती हैं। उपकरण को परिग्रह नहीं कहा जाता, मुनि | द्वारा दिये गये असमीचीन श्लोकार्थ से तो विवाद खडा हो रहा है। भी संयम की रक्षा एवं शास्त्र सुरक्षा हेतु वस्त्र उपकरण के रूप में उस तथाकथित विवाद का यदि तात्कालिक विराम किया जा सकता ग्रहण कर सकते हैं। वहीं वस्त्र आदि शरीर को ढकने के लिये प्रयोग | है तो वह यह कि इस तरह की जहाँ जिस संघ में जैसी परंपरा चल करने लगें तो वह उनका परिग्रह हो जायेगा। अतः मुनियों के लिये | रही हो वैसी चलती रहे और कोई किसी को अपनी मान्यता मनवाने वस्त्रोपकरण दान करने के उल्लेख को आर्यिकाओं की नवधाभक्ति | के लिये किसी प्रकार बाध्य नहीं करे, न एकदूसरे के प्रति व्यंगात्मक, का विधान परक निराधार अर्थ निकालने का द्राविड़ी व्यायाम पंडितजी | निंदात्मक शब्दों का प्रयोग ही करे। साथ ही वीतराग भाव से समाधान ने किया है जो आश्चर्य कारक है। कारक चर्चाएँ भी चलती रहे किन्तु मतभेद को कभी भी मनभेद का दूसरी बात यह है कि आर्यिका नवधा भक्ति जैसी चर्चा को | कारण नहीं बनने दिया जाए। समाज में कलह एवं विद्वेष के वातावरण की जनक के रूप में क्यों । मदनगंज-किशनगढ़, जिला-अजमेर (राज.) 18 सितम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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