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किया है, वे सब भी मुनिनिन्दक ठहरेंगे और तब ऐसी मुनि-निन्दा | है और उन्हें दिगम्बर जैन मुनि के रूप में मानने-पूजने आदि का निषेध से डरने का कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं रह जाएगा। परन्तु वास्तव | किया है। ऐसा करने में जिनशासन की निर्मलता को सुरक्षित रखना में वे महामुनि मुनि-निन्दक नहीं थे और न कोई उन्हें मुनि-निन्दक कहता | भी उनका एक ध्येय रहा है, जिसे समय-समय पर ऐसे दम्भी साधुओंया कह सकता है। उन्होंने वस्तुतत्त्व का ठीक निर्देश करते हुए उक्त तपस्वियों और भ्रष्टचारित्र-पंडितों ने मलिन किया है, जैसा कि 13वीं सब कुछ कहा है और उसके द्वारा हमारी विवेक की आँख को खोला शताब्दी के विद्वान् पं. आशाधरजी द्वारा उदधृत निम्न पुरातन पद्य है, यह सुझाया है कि बाह्य में परमधर्म का आचरण करते हुए देखकर | से भी जाना जाता है - सभी मुनियों को समान रूप से सच्चे मुनि न समझ लेना चाहिए,
पण्डितैर्धष्टचारित्रैर्वठरैश्च तपोधनैः। उनमें कुछ ऐसे भेषी तथा दम्भी मुनि भी होते हैं जो मुक्ति-प्राप्ति
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम्।। के लक्ष्य से भ्रष्ट हुए लौकिक कार्यों की सिद्धि तथा ख्याति-लाभ- इस पद्य में उन भवाभिनन्दी साधुओं के लये 'वठर' शब्द का पूजादि की दृष्टि से ही मुनिवेष को धारण किये हुए होते हैं। ऐसे मुनियों | प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है दम्भी, मायावी तथा धूर्त और को भवाभिनन्दी मुनि बतलाया है और उनके परखने की कसौटी को | | पंडितों के लिये प्रयुक्त 'भ्रष्टचारित्रैः' पद में धार्मिक तथा नैतिक चरित्र भी 'संज्ञावशीकृताः', 'लोकपंक्तिकृतादराः', 'लोभपराः' से भ्रष्ट ही नहीं, किन्तु अपने कर्तव्य से भ्रष्ट विद्वान भी शामिल हैं। आदि विशेषणों के रूप में हमें प्रदान किया है। इस कसौटी को काम | जिन विद्वानों को यह मालूम है कि अमुक आचार-विचार आगम के में न लेकर जो मुनि मात्र के अथवा भवाभिनन्दी मुनियों के अन्धभक्त विरुद्ध है, भवानिन्दी मुनियों- जैसा है और निर्मल-जिनशासन तथा बने हुए हैं, उन अन्धश्रद्धालुओं को विवेकी नहीं कहा जा सकता और | पूर्वाचार्यों की निर्मल कीर्ति को मलिन करने वाला है, फिर भी किसी अविवेकियों की पूजा, दान, गुरुभक्ति आदि सब धर्मक्रियायें धर्म भय, आशा, स्नेह, अथवा लोभादि के वश होकर वे उसके विरोध के यथार्थफल को नहीं फलती। इसी से विवेक (सम्यक् ज्ञान) पूर्वक | में कोई आवाज नहीं उठाते, अज्ञ जनता को उनके विषय में कोई आचरण को सम्यक्चारित्र कहा गया है। जो आचरण विवेकपूर्वक नहीं | समुचित चेतावनी नहीं देते, प्रत्युत इसके, कोई-कोई विद्वान् तो उनका वह मिथ्याचारित्र है और संसार-भ्रमण का कारण है।
पक्ष तक लेकर उनकी पूजा-प्रशंसा करते हैं, ठकुरसुहाती बातें कहकर अतः गृहस्थों-श्रावकों को बड़ी सावधानी के साथ विवेक से असत्य का पोषण करते और दम्भ को बढ़ावा देते हैं, यह सब भी काम लेते हुए मुनियों को उक्त कसौटी पर कसकर जिन्हें ठीक जैनमुनि | चरित्र-भ्रष्टता में दाखिल है, जो विद्वानों को शोभा नहीं देता। ऐसा के रूप में पाया जाये उन्हीं को सम्यक्मुनि के रूप में ग्रहण किया | करके वे अपने दायित्व से गिर जाते हैं और पूर्वाचार्यों की निर्मलकीर्ति जाये और उन्हीं को गुरु बनाया जाए, भवानन्दियों को नहीं, जो कि , तथा निर्मल-जिनशासन को मलिन करने में सहायक होते हैं। अतः वास्तव में मिथ्यामुनि होते हैं। ऐसे लौकिक-मुनियों को गुरु मानकर उन्हें सावधान होकर चारित्रभ्रष्टता के इस कलंक से बचना चाहिए और पूजना पत्थर की नाव पर सवार होने के समान है, जो आप डूबती मुनिनिन्दा के व्यर्थ के हौए को दूर भगाकर उक्त भ्रष्टमुनियों के सुधार तथा आश्रितों को भी ले डूबती है। उन्हें अपने हृदय से मुनि-निन्दा का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। हर प्रकार से आगम-वाक्यों के के भ्रान्त-भय को निकाल देना चाहिए और यह समझना चाहिए कि विवेचनादि-द्वारा उन्हें उनकी भूलों एवं दोषों का समुचित बोध कराकर जिन कथाओं में मुनिनिन्दा के पापफल का निर्देश है, वह सम्यक् सन्मार्ग पर लगाना चाहिए और सतत प्रयत्न द्वारा समाज में ऐसा मुनियों की निन्दा से सम्बन्ध रखता है, भवाभिनन्दी जैसे मिथ्यामुनियों वातावरण उत्पन्न करना चाहिए, जिससे भवाभिनन्दी मुनियों का उस को निन्दा से नहीं। वे तो आगम की दृष्टि से निन्दनीय-निन्दा के पात्र रूप में अधिक समय तक टिकाव न हो सके और जो सच्चे साधु हैं ही। आगम की दृष्टि से जो निन्दनीय हैं उनकी निन्दा से क्या डरना? हैं उनकी चर्या को प्रोत्साहन मिले। यदि निन्दा के भय से हम सच्ची बात कहने में संकोच करेंगे तो, | संदर्भ सूची :ऐसे मुनियों का सुधार नहीं हो सकेगा। मुनिनिन्दा का यह हौआ मुनियों 1. मोक्षस्तद्विपरीतः। (समन्तभद्र) के सुधार में प्रबल बाधक है, उन्हें उत्तरोत्तर विकारी बनाने वाला अथवा 2. बन्धस्य कार्यः संसारः। (रामसेन) बिगाड़ने वाला है। मुनियों को बनाने और बिगाड़ने वाले बहुधा गृहस्थ- आहार - भय - परिग्गह - मेहुण - सण्णाहि मोहितोसि तुमं। श्रावक ही होते हैं और वे ही उनका सुधार भी कर सकते हैं, यदि
भमिओ संसारवणे आणाइकालं अणप्पवसो॥10॥ उनमें संगठन हो, एकता हो और वे विवेक से काम लेवें। उनके
-कुन्दकुन्द भावपाहुड सत्प्रयत्न से नकली, दम्भी और भेषी मुनि सीधे रास्ते पर आ सकते
मुक्ति यियासता धार्येज्जिनलिगं पटीयसा। हैं। उन्हें सीधे रास्ते पर लाना सद्गृहस्थों और विवेकी विद्वानों का काम
- योगसार प्राभृत 8-1 है। मुख्यतः असद्दोषोद्धावन का नाम निन्दा है, गौणतः सदोषोद्भावन
सद्दृष्टि - ज्ञान - वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । का नाम भी निन्दा है, जबकि उसके मूल में व्यक्तिगत द्वेषभाव
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः।। (समन्तभद्र)
दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्य णात्थि णिव्वाणं। (दंसणपाहुड) संनिहित हो, जबकि ऐसा कोई द्वेषभाव संनिहित न होकर हृदय में
मोहो मिथ्यादर्शनमुच्यते - रामसेन, तत्वानुशासन। उसके सुधार की, उसके संसर्ग-दोष से दूसरों के संरक्षण की भावना
8. मुक्तिं यियासता धार्येज्जिनलिंग पढ़ीयसा। संनिहित हो और अपना कर्तव्य समझकर सदोषों का उद्भावन किया
(योगसार प्रा. 8 -1) जाए तो वह निन्दा न होकर अपने कर्तव्य का पालन है। इसी कर्तव्य | 9. भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम्। पालन की दृष्टि से महान् आचार्यों ने ऐसे भवाभिनन्दी लौकिक मुनियों प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः॥ में पाये जाने वाले दोषों का उद्घाटन कर उनकी पोलपट्टी को खोला
___ - स्वामी समन्तभद्र - सितम्बर 2001 जिनभाषित 11
3.
5.
7.
माहा "
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