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जिन आहारादि के उत्पादन में मुनि का मन, वचन, काय के द्वारा कृत कारित अनुमोदित रूप कुछ भी योगदान न हो ऐसा आहारादि का लेना मुनि के लिये नवकोटि विशुद्धिदान कहलाता है। अर्थात् जो आहारादि मुनि के मन के द्वारा कृत-कारित अनुमोदित न हो, न उनके वचन के द्वारा कृत- कारित अनुमोदित हो और न उनके काय के द्वारा कृंत कारित अनुमोदित हो ऐसे आहारादि का दान नवकोटिविशुद्ध दान कहलाता है। मतलब कि देयवस्तु के सम्पादन में मुनि का कुछ भी संपर्क नहीं होना चाहिए। इससे आहारादि के निमित्त हुआ आरम्भदोष मुनि को नहीं लगता है। वरना वह मुनि अधः कर्म जैसे महादोष का भागी होता है। अनेक ग्रन्थों में नवकोटि विशुद्धि का यही स्वरूप लिखा मिलता है, किन्तु आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण पर्व 20 में नवकोटिविशुद्धि का एक अन्य स्वरूप भी लिखा है।
यथा
नवकोटि विशुद्धि
दातुर्विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा । शुद्धिर्देयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः 11136।। पात्रस्य शुद्धिर्दातारं देवं चैव पुनात्यतः। नवकोटिविशुद्धं तद्दानं भूरिफलोदयम्।।137।। अर्थ दाता की शुद्धि देव और पात्र को पवित्र बनाती है। देय की शुद्धि दाता और पात्र को शुद्ध करती है एवं पात्र की शुद्धि दाता देय को पवित्र करती है। इस प्रकार का नवकोटि शुद्ध दान प्रचुर फल का देने वाला होता है।
इसमें जो लिखा है उसका अभिप्राय ऐसा है कि दाता देय (दान का द्रव्य) और पात्र (दान लेने वाला) इन तीनों में यदि तीनों ही अशुद्ध हों तब तो वह दानविधि दोषास्पद है ही। किन्तु इन तीनों में से कोई भी दो अशुद्ध हों और एक शुद्ध हो तो उस हालत में भी वह दानविधि दोषास्पद ही है। यही नहीं, तीनों में से यदि दो शुद्ध हो और सिर्फ एक ही कोई सा अशुद्ध हो तब भी वह दान विधि दोषास्पद ही समझनी चाहिए। मतलब कि दान विधि में दाता देय और पात्र ये तीनों ही निर्दोष होने चाहिये, तब ही वह बहुत फल को दे सकती है। तीनों में कोई एक भी यदि संदोष होगा तो वह दान विधि प्रशस्त नहीं मानी जा सकती है।
उक्त श्लोकद्वय में लिखा है कि दाता की शुद्धि देय और पात्र को पवित्र बनाती है। इस लिखने का भाव यह है कि यद्यपि देय और
12 सितम्बर 2001 जिनभाषित
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स्व. पं. मिलापचन्द्र कटारिया
पात्र शुद्ध है मगर दाता अशुद्ध है तो इस एक की अशुद्धि ही सब दान विधि को सदोष बना देगी और दाता व पात्र शुद्ध हैं मगर देय (दान का द्रव्य) अशुद्ध है तो यहाँ भी इस एक की अशुद्धि ही समस्त दान विधि को सदोष बना डालेगी। इसी तरह दाता और देय शुद्ध हैं मगर पात्र अशुद्ध है तो वह दानविधि भी सारी की सारी सदोष ही समझी जाएगी।
जिनसेनाचार्य का यह कथन आशाधर ने सागार धर्मामृत अध्याय 5 श्लोक 47 की टीका में तथा अनगारधर्मामृत के 5वें अध्याय के अन्त में और शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा 390 की टीका में उद्धृत किया है।
किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के निम्न श्लोक में जिनसेन के उक्त कथन के विरुद्ध लिखा है।
भुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् ।
ते सन्तः सत्यसन्तो वा गृही दानेन शुद्ध्यति ॥ 818 ॥ अर्थ - भोजनमात्र के देने में साधुओं की क्या परीक्षा करनी ? वे चाहे श्रेष्ठ हों या हीन हो, गृहस्थ तो उन्हें दान देने से शुद्ध हो ही जाता है।
सोमदेव ने इस श्लोक में यह शिक्षा दी है कि मुनि को आहार दान देते वक्त गृहस्थ को यह नहीं देखना चाहिए कि यह मुनि आचारवान् है या आचारभ्रष्ट है। उसकी जाँच पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। मुनि चाहे कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न हो, गृहस्थ को तो आहारदान देने का अच्छा ही फल मिलेगा।
सोमदेव का ऐसा लिखना जिनसेनाचार्य के आम्नाय के विरुद्ध है, क्योंकि जिनसेन ने ऊपर यह प्रतिपादन किया है कि, पात्र की शुद्धि दाता और देय दोनों को पवित्र बनाती है। प्रकारांतर से इसी को यों कहना चाहिए कि पात्र की (दान लेने वाले साधु की) अशुद्धि दाता और देव को भी अशुद्ध बना देती है अर्थात् उत्तमदाता और उत्तम देय के साथ-साथ दान लेने वाला भी सुपात्र होना चाहिए तभी दानी को दान का यथेष्टफल मिलता है।
महर्षि जिनसेन और सोमदेव के इन परस्पर विरुद्ध वचनों में किनका वचन प्रमाण माना जाए यह निर्णय हम विचारशील पाठकों पर ही छोड़ते है।
दयाभाव के साथ देखभाल, हिंसाप्रेमी हतप्रभ
दयोदय तीर्थ में बीमार और मूक पशुओं की देखभाल, दयाभाव के साथ की जा रही है। डॉ. अकलंक जैन के नेतृत्व में पूरी टीम जुटी हुई है। पशुओं की चोट पर दवाई लगाई जा रही है और उन्हें आवश्यक औषधियों, भोजन-पानी दिया जा रहा है। गौशाला में पहुँचे इन ढेर पशुओं को देखकर श्रद्धालुओं ने कहा- गौशाला की स्थापना का उद्देश्य पूरा हो रहा है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की मौजूदगी में मूक जानवरों का वहाँ पहुँचना और उन्हें राहत मिलना, भगवान के आशीर्वाद के समान है। दयोदय तीर्थ के अशोक जैन, अरविंद जैन ने कहा कि अहिंसा वर्ष में किये जा रहे इस कृत्य से सभी हिंसा प्रेमी हतप्रभ हैं।
(दैनिक भास्कर, जबलपुर 7 सितम्बर, 2001 से साभार)
जैन निबन्ध रत्नावली (द्वितीय भाग) से साभार
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