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________________ हा उक्त संज्ञाओं के वशीभूत होते हैं, उनके सारे धर्मानुष्ठान को यहाँ | महात्मा और कल्याणफल-भागी बतलाया है उनमें अविरत-सम्यग्दृष्टि निष्फल, अन्तः सारविहीन घोषित किया गया है। इसके बाद उससे | तक का समावेश है। लोकपक्ति का स्वरूप दिया है, जिसमें भवाभिनन्दियों का सदा आदर स्वामी समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन से सम्पन्न चाण्डाल-पुत्र को बना रहता है और वह इस प्रकार है - भी 'देव' लिखा है, आराध्य बतलाया है, और श्री कुन्दकुन्दाचार्य आराधनाय लोकानां मलिनेनान्तरात्मना। ने सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को भ्रष्ट ही निर्दिष्ट किया है, उसे निर्वाण की क्रियते या क्रिया बालैर्लोकपंक्तिरसौ मता।।2011 सिद्धि, मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। 'अविवेकी साधुओं के द्वारा मलिन अन्तरात्मा से युक्त होकर इस सब कथन से यह साफ फलित होता है कि मुक्तिद्वेषी लोगों के आराधन- अनुरंजन अथवा अपनी और आकर्षण के लिए मिथ्यादृष्टि भवाभिनन्दी, मुनियों की अपेक्षा देशव्रती श्रावक और जो धर्म-क्रिया की जाती है वह 'लोक-पंक्ति' कहलाती है।' अविरत-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तक धन्य हैं, प्रशंसनीय हैं तथा कल्याण यहाँ लौकिकजनों जैसी उस क्रिया का नाम 'लोकपंक्ति' है जिसे के भागी हैं। स्वामी समन्तभद्रने ऐसे ही सम्यग्दर्शनसम्पन्न सद्गृहस्थो के विषय में लिखा है - अविवेकीजन दूषित-मनोवृत्ति के द्वारा लोकाराधन के लिये करते हैं अर्थात् जिस लोकाराधन में ख्याति-लाभ-पूजादि- जैसा अपना कोई गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो, नैव मोहवान्। लौकिक स्वार्थ सन्निहित होता है। इसी से जिस लोकाराधन रूप क्रिया अनगारो, गृही श्रेयान् निर्मोहो, मोहिनो मुनेः।। में ऐसा कोई लौकिक स्वार्थ संनिहित नहीं होता और जो विवेकी विद्वानों 'मोह (मिथ्यादर्शन) रहित गृहस्थ मोक्षमार्गी है। मोहसहित के द्वारा केवल धर्मार्थ की जाती है वह लोकपंक्ति न होकर कल्याण (मिथ्या-दर्शन-युक्त) मुनि मोक्षमार्गी नहीं है। (और इसलिये) मोहीकारिणी होती है, परन्तु मूढचित्त साधुओं के द्वारा उक्त दूषित मनोवृत्ति मिथ्यादृष्टि मुनि से निर्मोही (सम्यग्दृष्टि) गृहस्थ श्रेष्ठ है।' के साथ लोकाराधन के लिये किया गया धर्म पापबन्ध का कारण होता इससे यह स्पष्ट होता है कि मुनि मात्र का दर्जा गृहस्थ से ऊँचा है। इसी बात को निम्न पद्य द्वारा व्यक्त किया गया है - नहीं है, मुनियों में मोही और निर्मोही दो प्रकार के मुनि होते हैं। मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ का दर्जा ऊँचा है, यह उससे श्रेष्ठ है। इसमें धर्माय क्रियमाणा सा कल्याणाझं मनीषिणाम्। तन्निमित्तः पुनर्धर्मः पापाय हतचेतसाम्।।21।। मैं इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि अविवेकी मुनि से विवेकी गृहस्थ भी श्रेष्ठ है और इसलिये उसका दर्जा अविवेकी मुनि से ऊँचा है। इसके बाद मुक्ति किसको कैसे प्राप्त होती है इसकी संक्षिप्त जो भवाभिनन्दी मुनि मुक्ति से अन्तरंग में द्वेष रखते हैं वे सूचना करते हुए आचार्य महोदय ने स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा की जैन मुनि अथवा श्रमण कैसे हो सकते हैं? नहीं हो सकते। जैन मुनियों है कि 'इस मुक्ति के प्रति मूढचित्त भवाभिनन्दियों का विद्वेष (विशेष रूप से द्वेषभाव) रहता है - का तो प्रधान लक्ष्य ही मुक्ति प्राप्त करना होता है। उसी लक्ष्य को कल्पष-क्षयतो मुक्तिर्भोग-संगम (वि) वर्जिनाम्। लेकर जिनमुद्रा धारण की सार्थकता मानी गई है। यदि वह लक्ष्य नही भवाऽभिनन्दिनामस्यां विद्वेषो मूढचेतसाम्।।23।। तो जैन मुनिपना भी नहीं, जो मुनि उस लक्ष्य से भ्रष्ट हैं उन्हें जैन ठीक है, संसार का अभिनन्दन करने वाले दीर्घ-संसारी होने से मुनि नहीं कह सकते, वे भेषी-ढोंगी मुनि अथवा श्रमणाभास हैं। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने, प्रवचनसार के तृतीय चारित्राधिकार में उन्हें मुक्ति की बात नहीं सुहाती, नहीं रुचती, और इसलिये वे उससे प्रायः विमुख बने रहते हैं, उनसे मुक्ति की साधना का कोई भी योग्य ऐसे मुनियों को 'लौकिकमुनि' तथा 'लौकिकजन' लिखा है। प्रयत्न बन नहीं पाता, सब कुछ क्रियाकाण्ड ऊपर-ऊपरी और कोरा लौकिकमुनि-लक्षणात्मक उनकी वह गाथा इस प्रकार है - णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मेहि। नुमायशी ही रहता है। मुक्ति से उनके द्वेष रखने का कारण वह दृष्टि विकार है जिसे सो लोगिगो त्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि।।69।। इस गाथा में बतलाया है कि 'जो निम्रन्थरूप से प्रव्रजित हुआ मिथ्या-दर्शन कहते हैं और जिसे आचार्य-महोदय ने अगले पद्य में ही 'भवबीज' रूप से उल्लेखित किया है। लिखा है कि 'भवबीज' है, जिसने निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनि की दीक्षा धारण की है, वह यदि का वियोग हो जाने से जिनके मुक्ति के प्रति यह विद्वेष नहीं है वे इस लोक-सम्बन्धी सांसारिक दुनियादारी के कार्यों में प्रवृत्त होता है भी धन्य हैं, महात्मा है और कल्याणरूप फल के भागी है।' वह पद्य तो तप-संयम से युक्त होते हुए भी उसे 'लौकिक' कहा गया है।' वह परमार्थिक मुनि न होकर एक प्रकार का सांसारिक दुनियादार प्राणी नास्ति येषामयं तत्र भव-बीज-वियोगतः। है। उसके लौकिक कार्यों में प्रवर्तन का आशय मुनि-पद को आजीविका का साधन बनाना, ख्याति-लाभ-पूजादि के लिये सब कुछ क्रियाकाण्ड तेऽपि धन्या महात्मानः कल्याण-फल-भागिनः।।24।। करना, वैद्यक-ज्योतिष-मन्त्र-तन्त्रादि का व्यापार करना, पैसा निसंदेह संसार का मूल कारण मिथ्यादर्शन है, मिथ्यादर्शन बटोरना, लोगों के झगड़े-टण्टे में फँसना, पार्टीबन्दी करना, के सम्बन्ध से ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र होता है, जिन तीनों को भवपद्धति-संसार मार्ग के रूप में उल्लेखित किया जाता साम्प्रदायिकता को उभारना और दूसरे ऐसे कृत्य करने-जैसा हो सकता है, जो कि मुक्ति मार्ग के विपरीत है। यह दृष्टि-विकार ही वस्तु है जो समता में बाधक अथवा योगीजनों के योग्य न हो। तत्त्व को उसके असली रूप में देखने नहीं देता, इसी से जो एक महत्त्व की बात इससे पूर्व की गाथा में आचार्य महोदय अभिनन्दनीय नहीं है उसका तो अभिनन्दन किया जाता है और जो ने और कही है और वह यह है कि 'जिसने आगम और उसके द्वारा अभिनन्दनीय है उससे द्वेष रक्खा जाता है! इस पद्य में जिन्हें धन्य, | प्रतिपादित जीवादि पदार्थों का निश्चय कर लिया है, कषायों को शान्त -सितम्बर 2001 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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