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________________ भवाऽभिनन्दी मुनि और मुनि-निन्दा स्व.पं. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' जो भवका, संसारका, अभिनन्दन करने वाले होते हैं। अभिनन्दन करता है, सांसारिक मुनियों को बनाने और बिगाड़ने वाले बहुधा ऐसे साधु-मुनियों की पहचान कार्यों में रुचि, प्रीति अथवा गृहस्थ-श्रावक होते हैं और वे ही उनका सुधार भी कर सकते एक तो यह है कि वे आहारादि दिलचस्पी रखता है, उसे 'भवाऽ- हैं, यदि उनमें संगठन हो, एकता हो और वे विवेक से काम चार संज्ञाओं के अथवा उनमें से भिनन्दी' कहते हैं। जो मुनिरूप लेवें। उनके सत्प्रयत्न से नकली, दम्भी और भेषी मुनि सीधे किसी के भी वशीभूत होते हैं, में प्रव्रजित-दीक्षित होकर भवाऽरास्ते पर आ सकते हैं। उन्हें सीधे रास्ते पर लाना सद्गृहस्थों दूसरे लोकपंक्ति में (लौकिकजनों भिनन्दी होता है वह 'भवाभि जैसी क्रियाओं के करने में) और विवेकी विद्वानों का काम है। मुख्यत: असद्दोषोद्भावन नन्दी मुनि' कहलाता है। भवाभि उनकी रुचि बनी रहती है और वे नन्दी मुनि स्वभाव से अपनी | का नाम निन्दा है, गौणतः सद्दोषोद्भावन का नाम भी उसे अच्छा समझकर करते भी भवाभिनन्दिनी प्रकृति के वश निन्दा है, जबकि उसके मूल में द्वेषभाव सन्निहित हो। जब हैं। आहार-संज्ञा के वशीभूत मुनि भव के विपक्षीभूत मोक्षका ऐसा कोई द्वेषभाव सन्निहित न होकर हृदय में उसके सुधार बहुधा ऐसे घरों में भोजन करते अभिनन्दी नहीं होता, मोक्ष में की, उसके संसर्गदोष से दूसरे के संरक्षण की भावना हैं जहाँ अच्छे रुचिकर एवं अन्तरंग से रुचि, प्रीति, प्रतीति सन्निहित हो और अपना कर्त्तव्य समझकर सद्दोषों का गरिष्ठ-स्वादिष्ट भोजन के मिलने अथवा दिलचस्पी नहीं रखता। उद्भावन किया जाये, तो वह निन्दा न होकर अपने कर्तव्य | की अधिक संभावना होती है, दूसरे शब्दों में यों कहिये, जो । का पालन है। उद्दिष्ट भोजन के त्याग की, मुनि मुमुक्षु नहीं, मोक्षमार्गी नहीं, आगमोक्त दोषों के परिवर्जन वह भवाभिनन्दी होता है। स्वामी समन्तभद्र के शब्दों में उसे | की, कोई परवाह नहीं करते, भोजन करते समय अनेक बाह्य क्षेत्रों 'संसारावर्तवर्ती' समझना चाहिये। भवरूप संसार बन्ध का कार्य है| से आया हुआ भोजन भी ले लेते हैं, जो स्पष्ट आगमाज्ञा के विरुद्ध और बन्ध मोक्ष का प्रतिद्वन्द्वी है, अतः जो बन्ध के कार्य का अभिनन्दी होता है। भय-संज्ञा के वशीभूत मुनि अनेक प्रकार के भयों से आक्रान्त बना, उसमें आसक्त होता है वह स्वभाव से ही मोक्ष तथा मोक्ष का | रहते हैं, परीषहों के सहन से घबराते तथा वनोवास से डरते हैं; जबकि फल जो अतीन्द्रिय, निराकुल, स्वात्मोत्थित, अबाधित, अनन्त, सम्यग्दृष्टि सप्त प्रकार के भयों से रहित होता है। मैथुनसंज्ञा के शाश्वत, परनिरपेक्ष एवं असली स्वाधीन सुख है, उससे विरक्त रहता | वशीभूत मुनि ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करते हुए भी गुप्त रूप है, भले ही लोकानुरंजन के लिए अथवा लोक में अपनी प्रतिष्ठा बनाये से उसमें दोष लगाते हैं। और परिग्रह-संज्ञा वाले साधु अनेक प्रकार रखने के अर्थ वह बाह्य में उसका (मोक्ष का) उपदेश देता रहे और | के परिग्रहों की इच्छा को धारण किये रहते हैं, पैसा जमा करते हैं, उसकी उपयोगिता को भी बतलाता रहे, परन्तु अन्तरंग में वह उससे | पैसे का ठहराव करके भोजन करते हैं, अपने इष्टजनों को पैसा दिलाते द्वेष ही रखता है। हैं, पुस्तकें छपा-छपाकर बिक्री करते-कराते रुपया जोड़ते हैं, भवाभिनन्दी मुनियों के विषय में निःसंग योगिराज श्री | तालाबन्द बाक्स रखते हैं, बाक्स की ताली कमण्डलु आदि में रखते अमितगति प्रथम ने योगसार-प्राभृत के आठवें अधिकार में लिखा | हैं, पीछी में नोट छिपाकर रखते हैं, और अपनी पूजाएँ बनवाकर छपवाते हैं। ये सब लक्षण उक्त भवाभिनन्दियों के हैं जो पद्य के भवाऽभिनन्दिनः केचित् सन्ति संज्ञा-वशीकृताः। 'संज्ञावशीकृताः' और 'लोकपंक्तिकृतादराः' इन दोनों विशेषणों कुर्वन्तोऽपि परं धर्मं लोक-पंक्ति-कृतादराः॥18॥ से फलित होते हैं और आजकल अनेक मुनियों में लक्षित भी होते 'कुछ मुनि परम धर्म का अनुष्ठान करते हुए भी भवाऽभिनन्दी | हैं। (संसारका अभिनन्दन करने वाले) अनन्त संसारी तक होते हैं, जो भवाभिनन्दी मुनियों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए आचार्यकि संज्ञाओं के', आहार, भय, मैथुन और परिग्रह नाम की चार | महोदय ने तदनन्तर एक पद्य और भी दिया है जो इस प्रकार है :संज्ञाओं-अभिलाषाओं के, वशीभूत हैं और लोकपंक्ति में आदर किये मूढा लोभपराः क्रूरा भीरवोऽसूयकाः शठाः। रहते हैं- लोगों के आराधने- रिझाने आदि में रुचि रखते हुए प्रवृत्त भवाभिनन्दिनः सन्ति निष्फलारम्भकारिणः।।1।। होते हैं।' इसमें बतलाया है कि 'जो मूढ़-दृष्टि-विकार को लिये हुए __ यद्यपि जिनलिंग को (निर्ग्रन्थ जैनमुनि-मुद्रा को) धारण करने मिथ्यादृष्टि लोभ में तत्पर, क्रूर, भीरु, ईर्ष्यालु और विवेक-विहीन के पात्र अति निपुण एवं विवेक-सम्पन्न मानव ही होते हैं। फिर भी हैं वे निष्फल-आरम्भकारी-निरर्थक धर्मानुष्ठान करनेवाले भवाऽभिन्दी जिनदोक्षा लेने वाले साधुओं में कुछ ऐसे भी निकलते हैं जो बाह्य हैं। यहाँ भवाभिनन्दियों के लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया में परम धर्म का अनुष्ठान करते हुए भी अन्तरंग से संसार का | | है वे उनकी प्रकृति के द्योतक हैं। ऐसे विशेषण-विशिष्ट मुनि ही प्रायः 8 सितम्बर 2001 जिनभाषित - । ताता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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