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'अहो! श्रुतम् ई-परिपत्रम्-२'
जैन शास्त्र-साहित्य सम्पादन-संशोधन माहितीविषयक परिपत्र
------------- किञ्चिद् वक्तव्यम् ---------- चरम तीर्थपति तीर्थंकर परमात्मा श्री महावीरस्वामी की त्रिपदी को प्राप्त करके गणधर भगवंत द्वादशांगी की रचना करते है । द्वादशांगी के १४ पूर्व प्रमाण समुद्रसमान विशाल ज्ञानसागर में से कलिकाल के प्रभाव में बचा हुआ बिंदु जितना ज्ञान श्री सुधर्मास्वामीजी की उज्ज्वल पाट परंपरा के द्वारा हमें मिला है। जैन धर्म के विभिन्न शास्त्रग्रंथों में उपलब्ध श्रुतज्ञान को संकलित करके ज्ञानपिपासुओं को सरलता से पहंचाने का कार्य सात सालों से शा. सरेमल जवेरचंद बेड़ावाला परिवार द्वारा स्वद्रव्य निर्मित श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार द्वारा चल रहा है। संस्था के द्वारा देश भर में दूर-सुदूर प्रदेशों में रहे हुए जो विद्वान श्रमण-श्रमणी भगवंत नूतन रचना, संशोधन, लेखन व ज्ञान का विशिष्ट कार्य कर रहे है, उन सभी के कार्य का संकलन करके जिज्ञासु जनों तक पहुँचाने का प्रयास सभी के सहयोग से हो रहा है। पूज्य गुरु भगवंत अपनी शक्ति व समय का सदुपयोग करके विविध शास्त्रग्रंथो का पांडुलिपिओं पर से संशोधन-संपादन करते है उसका व्यवस्थित रूप में संकलन हो और ज्ञानामृत सर्व सुयोग्य पात्रों तक पहुँच सके इस हेतु से अहोश्रुतम् ई-परिपत्र-१ सं. २०६९ में प्रकाशित हुआ था। इसी चरण में नवीन सजावट व नये रूप रंगमें इसका दुसरा अंक प्रकाशित कर रहे हैं। जिस में अद्यावधि अप्रकाशित चार कृतियाँ सर्व प्रथम बार प्रकाशित हो रही है। १) परमज्योतिः पञ्चविंशतिका - कर्ता-पू. महोपाध्याय यशोविजयजी म. ___ वार्त्तिककार - आ. हेमचंद्रसूरिजी शिष्य आ. कल्याणबोधिसूरिजी २) सज्जनचित्तवल्लभम् - कर्ता-पू. उदयप्रभसूरिजी, टीकाकार-पू. सिंहसूरिजी
संशोधन-संपादन - आ. गुणरत्नसूरिजी शिष्य गीतार्थरत्नविजयजी म.