________________
विक्रम
प्रोषधोपवास की - ( १ ) अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग, (२) अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान, (३) अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण, (४) अनादर, (५) स्मृत्यनुप
स्थापन |
उपभोग - परिभोगवृत्त की - ( १ ) सचित्ताहार, (२) सचित्तसम्बन्धाहार, ( ३ ) सचित्तसंमिश्राहार, (४) अभिषवनहार, (५) दुष्पक्वाहार ।
प्रतिथिसंविभाग की —- ( १ ) सचित्त निक्षेप, (२) सचित्तापिधान, (३) परव्यपदेश, (४) मात्सर्य, (५) कालाति म ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने शिक्षाव्रतों में भोगोपभोगव्रत को न गिना कर संलेखना की गणना की है ।
'
सल्लेखना - जीवन की अन्त अवस्था में मृत्यु का स्वेच्छया तथा प्रसन्नतापूर्वक वरण है । इसके पाँच उपनियम इस प्रकार हैं - ( १ ) जीविताशंसा, (२) मरणाशंसा, (३) मित्रानुराग, (४) सुखानुबन्ध, (५) निदान |
ऊपर जिस प्रकार हमने पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों की उपधाराओं का स्पष्टीकरण किया है, उसी प्रकार शिक्षाव्रतों की उपधाराएँ भी विवेचनीय हैं।
इस विवरण से यह स्पष्ट है कि इन आठ मूल गुणों और बारह व्रतों का उनकी उपधाराओं सहित पालन मात्र व्यक्तिगत जीवन का एक धार्मिक रीति-नियम नहीं था । प्रत्युत सामाजिक और आर्थिक जीवन के आधारभूत संविधान की धाराएँ और उपधाराएँ थीं जिनका पालन प्रत्येक सावय-श्रावक को अनिवार्य था ।
इन सभी नियमों और उपनियमों का संचालन केन्द्र मूलतः व्यक्ति स्वयम् था । यदि वह चूकता तो समाज उसका नियमन करता और यदि वहाँ भी चूक होती तो राज्य प्रशासन उसे अपने हाथ में लेता ।
तीर्थंकर महावीर के चिन्तन को आधार मान कर जिस उपर्युक्त आचार संहिता का विकास हुआ उसने समाज संरचना और उसके आर्थिक ढाँचे को एक सुदृढ़ भूमि प्रदान की । यही कारण है कि पच्चीस सौ वर्षों के बाद आज भी महावीर का अनुयायी श्रावक सामाजिक और प्रार्थिक दृष्टि से उन्नत स्थिति में दृष्टिगोचर होता है ।
महावीर ने अपने युग की बहुप्रचलित क्रियाकाण्ड और पशु-यज्ञों की जो निरर्थकता बताई उसके मूल में भी महावीर की सामाजिक और आर्थिक दृष्टि थी । यज्ञों में मनों घी-दूध, जव तिल आदि खाद्य सामग्री तथा गाय, घोड़े आदि पशु बहुतायत से भस्म किए जाते थे । यज्ञ धार्मिक कृत्य माने जाते थे, इसलिए सर्वश्रेष्ठ सामग्री की तलाश की जाती थी । यदि किसी राजा-महाराजा ने सौ अश्वमेध किए और विभिन्न पुरोहित पण्डों ने पांच सौ गौमेध, तो उनसे क्या समाज का आर्थिक जीवन छिन्न-भिन्न नहीं होता था ? श्रवश्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org