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तीन गुरणव्रत
चार शिक्षाव्रत
सामाजिक और आर्थिक सन्दर्भ में महावीर का दर्शन
(१) दिशा और विदिशा के गमन का मान ।
(२) अनर्थदण्ड वर्जन ।
(३) भोगोपभोगपरिमाण ।
(१) सामायिक | (२) प्रोषध ।
(३) श्रतिथिपूजा । ( ४ ) सल्लेखना ।
प्राचार्य उमास्वामी (२री शती) ने तत्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में उक्त बारह व्रतों की पूरी व्याख्या की है और उसके साथ उनके उपनियमों का भी विवरण दिया है जिसे भावना और प्रतिचार कहा गया है । उमास्वामी ने गुरणव्रत और शिक्षाव्रत को शील कहा है।
श्राचार्य समन्तभद्र ( २ री शती) ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पाँच अणुव्रत तथा मद्य, मांस और मधु के त्याग को आठ मूल गुण कहा है
मद्यमांसमधुत्यागैः सहारणुव्रतपंचकम् ।
to मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः || ६६ ॥
चामुण्डराय ( ११वीं शती) ने चारित्रसार में उक्त मूल गुणों का निर्देश करनेवाला एक पद्य महापुराण से उद्धृत किया है (१२२)
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आशाधर (१३वीं शती) ने मुनि और श्रावक दोनों की आचार संहिता लिखी । सार धर्मामृत में मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को आठ मूल गुण कहा है—
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मद्यमांसमधून्युज्भेत् पंच क्षीरफलानि च । (२२)
अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय (६१-७४) में, सोमदेव ( १०वीं शती) ने यशस्तिलकम् में, देवसेन ने भावसंग्रह (३५६) में पद्मनन्दि ने पंचविंशतिका ( २३ ) में, प्रमितगति ने सुभाषितरत्नसन्दोह (७६५) में उपर्युक्त मूल गुरणों का विवेचन किया है ।
प्राचार्य रविषेण (वि० सं० ७३४ ) ने पद्मचरितम् में श्रावक की आचार संहिता का विवरण दिया है । अन्त में मधु, मद्य, मांस, जुना, रात्रि भोजन और वेश्यागमन के त्याग को नियम कहा है---
मधुनो मद्यतो मांसात् द्यूततो रात्रिभोजनात् ।
वेश्यासंगमनाच्चास्य विरतिनियमः स्मृतः ॥ ( १४/२०२)
श्राचार्य जिनसेन ( वि० सं० ८४०) ने हरिवंशपुराण (१८) में पद्मचरित के समान ही बारह व्रत बताए हैं और मांस, मद्य, मधु, द्यूत उदुम्बरफल, वेश्या तथा परस्त्री के त्याग को नियम कहा है
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