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सामाजिक और आर्थिक सन्दर्भ में महावीर का दर्शन
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अनुश्रुति के अनुसार सभ्यता के आदि युग में, जिसे शास्त्रीय भाषा में कर्मभूमि का प्रारम्भ कहा जाता है, ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य का उपदेश दिया। उसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था बनी। लोगों ने स्वेच्छा से कृषि आदि कार्य स्वीकृत कर लिए। कोई कार्य छोटा-बड़ा नहीं समझा गया। इसी तरह कोई भी कार्य धर्म धारण करने में रुकावट नहीं माना गया।
बाद के साहित्य में यह अनुश्रुति तो सुरक्षित रही, किन्तु उसके साथ में वर्णव्यवस्था का सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा। नवीं शती में आकर जिनसेन ने अनेक वैदिक मन्तव्यों पर भी जैन छाप लगा दी।
जटासिंहनन्दि (७वीं शती, अनुमानित) ने चतुर्वर्ण की लौकिक और श्रौत-स्मार्त मान्यताओं का विस्तारपूर्वक खण्डन करके लिखा है कि कृतयुग में तो वर्ण भेद था ही नहीं, त्रेतायुग में स्वामी-सेवक भाव आ चला था। इन दोनों युगों की अपेक्षा द्वापरयुग में निकृष्ट भाव होने लगे और मानव समूह नाना वर्गों में विभक्त हो गया। कलियुग में तो स्थिति और भी बदतर हो गयी। शिष्ट लोगों ने किया विशेष का ध्यान रख कर व्यवहार चलाने के लिए दया, अभिरक्षा, कृषि और शिल्प के आधार पर चार वर्ण कहे हैं, अन्यथा वर्णचतुष्टय बनता ही नहीं।
रविषेणाचार्य (६७६ ई ) ने पूर्वोक्त अनुश्रुति तो सुरक्षित रखी, किन्तु उसके साथ वर्णो का सम्बन्ध जोड़ दिया। उन्होंने लिखा है कि ऋषभदेव ने जिन व्यक्तियों को रक्षा के कार्य में नियुक्त किया वे लोक में क्षत्रिय कहलाए, जिन्हें वाणिज्य, कृषि; गोरक्षा आदि व्यापारों में नियुक्त किया वे वैश्य तथा जो शास्त्रों से दूर भागे और हीन काम करने लगे वे शूद्र कहलाए।
ब्राह्मण वर्ण के विषय में एक लम्बा प्रसंग आया है, जिसका तात्पर्य है कि ऋषभ देव ने यह वर्ण नहीं बनाया, किन्तु उनके पुत्र भरत ने व्रती श्रावकों का जो एक अलग वर्ण बनाया वही बाद में ब्राह्मण कहलाने लगा।
हरिवंशपुराण में जिनसेन सूरि (७८३ ई.) ने रविषेणाचार्य के कथन को ही दुसरे शब्दों में दुहराया है। आदिपुराण में जिनसेन (6वीं शती) ने, उत्तरपुराण में गुणभद्र ने, यशस्तिलक में सोमदेव (१०वीं बनी) ने इन बातों की पुष्टि की है ।
समाज संरचना के लिए जब ये आधारभूत सिद्धान्त स्वीकार कर लिए गए तो उसके लिए एक प्राचार संहिता का निर्माण हुआ जिसे सावयधम्म, गृहस्थाचार या श्रावकाचार नाम दिए गए।
श्रावकाचार में सामाजिक जीवन की एक सुव्यवस्थित आचार संहिता का प्रतिपादन किया गया है। सामाजिक व्यक्ति के रूप में पूरी जीवन यात्रा और अन्त में चिन्तामुक्त होकर मृत्यु का वरण करने तक के लिए नियम और उपनियमों का विस्तार से प्रति
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