SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विक्रम वर्ण का नियामक जन्म नहीं कर्म है। व्यक्ति जो कार्य करे वही उसका वर्ण माना जायगा। जन्म से वर्ण नहीं चलेगा। जो ब्राह्मण का कार्य करेगा वह ब्राह्मण, जो क्षत्रिय का काम करेगा वह क्षत्रिय, जो वैश्य का काम करे वह वैश्य और जो शूद्र का काम करे वह शूद्र माना जायेगा। कोई कार्य छोटा-बड़ा नहीं है। कार्य के आधार पर ऊंच-नीच का भेद नहीं किया जा सकता। महावीर ने स्वयम् जीवन में इसका प्रयोग करके देखा, वह अन्त्यजों के सम्पर्क में गए, लुहार और गोपालकों के साथ रहे। दासप्रथा के खिलाफ सत्याग्रह किया। नारी को पुरुष की तरह समान अधिकार दिए। यज्ञों के विरोध का मूल प्रयोजन समाज के जीवन को आर्थिक विशृखलता और अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाना ही था। महावीर ने जब कहा कि ईश्वर तुम्ही हो, तुम अपने कर्म के कर्ता और भोक्ता स्वयम् हो तो इसके पीछे समाज को ईश्वर की परतन्त्रता से मुक्त करा कर उसके कृतित्व को प्रतिष्ठा देना ही मुख्य उद्देश्य था । महावीर के इस प्रयत्न ने एक वर्ग-विहीन और शोषण-मुक्त समाज संरचना की नींव डाली। महावीर की परम्परा के साहित्य में इस बात को पुष्ट करने वाली पर्याप्त सामग्री मिलती है। _मूल में जैन धर्म वर्ण-व्यवस्था तथा उसके आधार पर सामाजिक व्यवस्था को • स्वीकार नहीं करता। सिद्धान्त ग्रन्थों में वर्ण और जाति शब्द नामकर्म के प्रभेदों में पाए हैं। वहाँ वर्ण शब्द का अर्थ रंग है, जिसके कृष्णा, नील आदि पाँच भेद हैं। प्रत्येक जीव के शरीर का वर्ण (रंग) उसके वर्ण-नामकर्म के अनुसार बनता है। इसी तरह जाति नामकर्म के भी पाँच भेद हैं --एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । संसार के सभी जीव इन पाँच जातियों में विभक्त हैं। जिसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय है उसकी एके न्द्रिय जाति होगी। मनुष्य के स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं। इसलिए उसकी जाति पंचेन्द्रिय है। पशु के भी पाँचों इन्द्रियाँ हैं, इसलिए उसकी भी जाति पंचेन्द्रिय है। इस तरह जब जाति की दृष्टि से मनुष्य और पशु में भी भेद नहीं तब वह मनुष्य-मनुष्य का भेदक तत्व कैसे माना जा सकता है। वर्ण (रंग) की अपेक्षा अन्तर हो सकता है, किन्तु वह ऊँच-नीच तथा स्पृश्य-अपृश्य की भावना पैदा नहीं करता। गोत्र कर्म के उच्च गोत्र और नीच गोत्र दो भेद भी आत्मा की आभ्यन्तर शक्ति की अपेक्षा किए गए हैं। ये वर्ण, जाति और गोत्र धर्म धारण करने में किसी भी प्रकार की रुकावट पैदा नहीं करते। प्रत्येक पर्याप्तक भव्य जीव चौदहवें गुणस्थान तक पहुँच सकता है। पांचवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थान मुनि के ही हो सकते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि कोई भी मनुष्य चाहे वह लोक में शूद्र कहलाता हो या ब्राह्मण स्वेच्छा से धर्म धारण कर सकता है। ___ सैद्धान्तिक ग्रन्थों में सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी मन्तव्यों का वर्णन नहीं है । पौराणिक अनुश्रुति भी चतुर्वर्ण को सामाजिक व्यवस्था का आधार नहीं मानती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy