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________________ विक्रम निश्चय नय व्यवहार नय में साध्य साधन भाव निश्चय व्यवहाराभ्यां, मोक्षमार्गो विमा मतः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीय स्तस्य साधनम् ॥ तत्त्वार्थसार । तात्पर्य यह कि निश्चय एवम् व्यवहार नय की अपेक्षा मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। इनमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग उसका साधन है। यही बात नयचक्र में भी कही गई है गो वनहारेण बिरमा, णिज्य सिद्धि कया विणिहिट्ठा । साहण हेउ जम्हा, तस्याय- सो हबई कबहारो।। अर्थ यह है कि व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि सम्भव नहीं है इसलिए से निश्चय का साधक है वही व्यवहार मोक्षमार्ग है। प्राचार्य प्रवर अमृतचन्द्र ने पुरुषार्म सिद्धि में इसी बात को स्पष्ट किया है सम्यक्त्व बोध चारित्र लक्षणो, मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचार रूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ॥ अर्थात् सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्ग मुख्य उपचार रूप से दो तरह का है जीव को साक्षात् अथवा परम्परा रूप से मुक्ति प्रदाता है। यहां प्राचार्य प्रवर ने निश्चय मोक्षमार्ग को मुख्य और व्यवहार को उपचार कहा है। यद्यपि निश्चय रत्नत्रय रूपलीक की शुद्धात्म परिणति ही मुख्य रूप से मोक्षमार्ग है तथापि साधन के बिना साध्य की सिशिनहीं होती। इस दृष्टि से व्यवहार रत्नत्रय को उपचार रूप से मोक्षमार्ग कहा है । जैसे कोई रुग्ण व्यक्ति अपनी नीरोग दशा का विचार करने मात्र से नीरोग नहीं हो सकता। पथ्य परहेज व औषधि प्रयोग से ही छोरोला मुक्ति मिल सकती है। उसी प्रकार व्यवहार रत्नत्रय के साधन से ही जीव को शुद्धात्म स्वभाव की उपलब्धि हो सकती है अन्यथा नहीं। व्यवहार भोजमा सर्वमा असत्यार्य नहीं हैं कई लोग व्यवहार मोक्षमार्ग को पराश्रित होने के कारण सर्वथा असत्यार्थ कहकर मोक्षमार्ग में हेय ही मानते हैं। वे शायद बिना बीज बोये फसल काट लेना चाहते हैं । साधन अपना कार्य निष्पन्न करके अप्रयोजनीय हो जावे यह बात दूसरी है, परन्तु कार्य निष्पन्न न होने तक उसका महत्व स्वत: सिद्ध है। अत: व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का साधन होने से उसकी प्राप्ति न होने तक अपनी कथञ्चित उपादेयता ही है। हाँ ! व्यवहार मोक्षमार्ग सर्वथा असत्यार्थ उस स्थिति में माना जा सकता है जब कि वह निश्चय का साधक न हो अथवा उसे ही साध्यमानकर जीव अपने स्वभाव की प्रतीति बिना मिथ्याग्रस्त बना रहे। व्यवहार नय मोक्षमार्ग में प्रयोजन भूत इसलिए भी है कि जो अज्ञानी जीव प्रात्मतत्त्व से सर्वथा अनभिज्ञ हैं अथवा शरीर और आत्मा के भेदज्ञान से रहित हैं उन्हें आत्मा और शरीर के गुणों के आधार पर आत्मबोधपूर्वक भेदज्ञान करके सभ्यवत्त्व की पात्रता उत्पन्न कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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