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निश्चय नय - व्यवहार नय
इसी तरह जीव व कर्म परमाणुनों की स्वभाव भिन्नता और प्रदेश भिन्नता विषयक प्रतीति भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीवों को अपने शुद्ध गुण पर्यायों को प्रकट करने में प्रेरक होती है। यदि वे अपने इस शुद्ध स्वभाव की प्रतीतिपूर्वक विभाव परिणति को दूर करने के लिए व्रत-तप-ध्यानादि बाह्य निमित्तों को मिलाकर प्रात्मशुद्धि का पुरुषार्थ करें तो पूर्ण शुद्ध दशा को प्राप्त कर सकते हैं।
प्राचार्य प्रवर अमृतचन्द्र ने "स्वाश्रितो निश्चयः" "पराश्रितो व्यवहारः" ऐसा कहकर जीव की स्वाश्रित शुद्ध ज्ञान दर्शनादि रूप प्रात्मपरिणति को निश्चय नय और व्रत तप ध्यानादि रूप शरीराथित प्रवृत्ति को व्यवहार नय कहा है। ये दोनों नय मोक्ष मार्ग के पथिक के दो नेत्र हैं जिनके द्वारा वह संसार व मोक्ष के अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग कारणों पर दृष्टिपात करता हुआ प्रात्म-साधना में तत्पर होता है। निश्चयनय से शरीरादि परद्रव्यों के प्रति एकत्व बुद्धि (ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ ऐसी मिथ्या धारणा) तथा इष्टानिष्ट बुद्धि दूर होती है तथा स्वपर की यथार्थ प्रतीति होने से शुद्धात्मानुभव रूप प्रात्मनिधि हाथ लगती है। इसी तरह व्यवहार नय से मोहाच्छादित आत्मा के विकारी स्वभाव को जानकर उसके कारण पाश्रव व बन्ध तत्व से बचता है तथा मोहादि विकारों को दूर करने वाले संवर व निर्जरातत्त्व के कारणों को अङ्गीकार कर मोक्षमार्ग में अग्रसर होता है ।
प्रवचन सार की टीका में प्राचार्य कहते हैं-द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः । द्रव्यस्य सिद्धिः चरणस्य सिद्धौ अर्थात् द्रव्यों के भेदज्ञान से चारित्र की सिद्धि होती है और चारित्र की सिद्धि से प्रात्मसिद्धि प्राप्त होती है। द्रव्यानुयोग से तत्त्व ज्ञान प्राप्त कर वीतराग भाव को प्राप्त करने के लिए ज्ञानी जीव संयम की आराधना न करे-ऐसा नहीं हो सकता।
मोक्षमार्ग का प्रस्ति नास्ति रूप कथन अध्यात्म ग्रन्थों में निश्चय नय से प्रात्मा के शुद्ध स्वभाव का अस्ति रूप से कथन है। प्रागम ग्रन्थों में व्यवहार नय से वही कथन विभाव परिणति के त्याग की अपेक्षा नास्ति रूप से है। वस्तुमात्र में प्रस्ति नास्ति प्रादि सभी धर्म सापेक्ष भाव से सिद्ध होते हैं। मोक्षमार्ग में प्रात्मा की शुद्धता के लिए प्रशुद्ध भाव (मोहभाव) एवम् उसके कारणों का (सभी चेतन अचेतन रूप बाह्य पहिग्रह का) त्याग जिस प्रकार आवश्यक है उसी प्रकार अशुद्धता एवम् उसके कारणों के निवारणार्थ शुद्ध स्वभाव (निष्कषाय वीतराग भाव) एवम् उसके कारणों का (व्रत संयमादि) ग्रहण भी अपेक्षित है । जीव की संसार व मोक्ष पर्याय परस्पर विपरीत पर्यायें हैं इसलिए एक दूसरे के कारणों का त्याग ही परस्पर का ग्रहण है और इसी दृष्टि से संसार के कारणों का त्याग ही मुक्ति के कारणों का ग्रहण है। प्राचार्य कहते हैं
जे णय दिट्ठि विहूणा, ताणाण वत्यु सहाव उवलब्धि ।
वत्यु सहाव विहूणा, सम्भाइही कहं हुति ।। नयचक्र ॥
जो नयदृष्टि रहित हैं वे वस्तु स्वभाव को नहीं समझ सकते और जो वस्तु स्वभाव से अनिभिज्ञ हैं वे सम्यग्दृष्टि कैसे ?
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