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विक्रम
कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा। इस तरह संसार पर्याय में जाव को सर्वथा शुद्ध अथवा अशुद्ध मानने से बन्धमोक्ष व्यवस्था लुप्त हो जायगी और इस स्थिति में जीव की संसार व मोक्ष पर्याय के अभाव में जीव का भी प्रभाव सिद्ध होगा। .
द्रव्यारणां तु यथारूपं, तल्लोकेऽपि व्यवस्थितम् : तथा ज्ञानेन संज्ञातं, नयोऽपि हि तथाविधः॥ पालाप पद्धति ।
अर्थ-द्रव्यों का जैसा स्वरूप है उनकी लोक में वैसी ही स्थिति है। वे ज्ञान में उसी रूप में जाने भी जाते हैं, तथा ज्ञान के जितने विकल्प हैं उतने ही नय हैं।
इस तरह जैन दृष्टि से जीवादि छहं द्रव्य लोकस्थिति के प्रमुख अंग हैं। वे अपने परिणमन शील अस्तित्व में रहते हुए अपना कार्य निष्पन्न करते रहते हैं। इनमें जीव और पुद्गल को छोड़कर शेष चार द्रव्य (धर्म, अधर्म, आकाश, काल) अपने-अपने गुण पर्यायों में स्वभाव रूप से ही परिणमन करते हैं। लेकिन जीव और पुद्गल ये दो ऐसे द्रव्य हैं जो स्वभाव व विभावरूप दोनों तरह से परिणमन करते हैं। जीव जब तक कर्मबद्ध दशा में रहता है तब तक उसकी गुण पर्याय विभाव रूप में परिणमन करती हैं। लेकिन कर्म संयोग दूर होने पर स्वभाव रूप में परिणमन करने लगती हैं। जैसे स्फटिक मणि लाल पीतादि वस्त्रों के प्रतिबिम्ब से तद्रूप दिखाई देता है तथा वस्त्र हटते ही अपने शुभ्र स्वभाव में परिणत हो जाता है। जीव के वर्तमान मति ज्ञानादि विभाव गुण और नर नारक आदि अशुद्ध पर्यायें भी कर्मोदय जन्य हैं । कर्म-बन्ध हटते ही जीव के के वल ज्ञानादि स्वभाव गुण और सिद्धत्व रूप स्वभाव पर्याय स्वयम् प्रकट हो जाती हैं। शुद्ध गुण पर्यायों का एक बार आविर्भाव हो जाने पर फिर विकारोत्पादक कर्म वर्गरणा के अभाव में कभी तिरोभाव नहीं होता।
इस तरह शुद्ध गुण पर्याय सहित शुद्ध आत्म द्रव्य हा जीव मात्र को सर्वथा. उपादेय है। यही जन्ममरणादि रहित जीव की परमात्म दशा भी है।
यहाँ यह बात विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जीव में कर्म जनित विभाव परिणमन के कारण पर्यायगत अशुद्धता भले हो लेकिन द्रव्यगत शुद्धता उसके मूलभूत ध्र व चैतन्य स्वभाव के कारण बनी रहती है और यही बात उसकी अन्य द्रव्यों से भिन्नता प्रकट करती है । यद्यपि जीव के साथ कर्मों का एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध है तथापि जीव का एक भी प्रदेश अपने मूल चैतन्य गुण को छोड़कर जड़त्व भाव को प्राप्त नहीं होता। और न कर्म का एक भी जड़ परमाणु चैतन्य भाव को प्राप्त करता है। जैसे चाँदी मिश्रित स्वर्ण पर्याय-दृष्टि से अशुद्ध है तथापि वह अपने पीतत्वादि गुणों का सर्वथा त्याग नहीं करता और न स्वर्ण के परमाणु अपना अस्तित्व छोड़कर चाँदी रूप में परिणमन करते हैं। स्वर्ण-शोधक इसी गुण व प्रदेश भिन्नता को दृष्टि में रखकर अग्नि आदि द्रव्यों की सहायता से उसे सर्वथा शुद्ध कर देता है जिससे वह स्वर्ण अपने शुद्ध गुण पर्याय सहित अपनी शुद्ध दशा में जा पहुँचता है।
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