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The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4.01974
निश्चय नय - व्यवहार नय
(दयाचन्द्र शास्त्री, उज्जन) मोक्षमार्ग में प्रात्म साधना के लिए तत्त्वज्ञान व तत्त्वज्ञान के लिए नय ज्ञान अत्यावश्यक है। अध्यात्म ग्रन्थों में निश्चय नय व व्यवहार नय से तत्त्व विवेचन इसी दृष्टि से किया गया है कि मुमुक्षु दोनों नयों से प्रात्मतत्त्व का यथार्थ निर्णय कर मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो, अन्यथा मुक्ति के लिए की गई प्रात्म-साधना फलवती नहीं हो सकती।
बुज्झहता जिरणवयरणं, पच्छा रिगजकज्ज संजुमा होइ।
अहवा तंदुल रहियं, पलाल संगणं सव्वं ॥ नयचक्र ।
तात्पर्य यह कि सर्वप्रथम जिनवाणी का मर्म समझो तत्पश्चात् आत्महित में लगो, अन्यथा मुक्ति के हेतु किया गया पुरुषार्थ चांवल प्राप्त किए बिना केवल पुपाल कूटने के सहश है। अत: मोक्ष मार्ग में दोनों की उपयोगिता पर विशद् प्रकाश डालना उपयुक्त होगा।
प्राचार्य उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र में "प्रमाणयरधिगमः" इस सूत्र से प्रमाण ज्ञान व नयज्ञान को प्रस्तुविज्ञान का मुख्य कारण कहा है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक है इसलिए जो वस्तु के उभय अंशों को साग विषय करे वह प्रमाण ज्ञान है। तथा जो सामान्य प्रथवा विशेष दोनों में से किसी एक अंश को विषय करे, वह नय ज्ञान है। यहाँ सामान्य का अर्थ द्रव्य और विशेष का मर्थ पर्याय है। प्रत: जो द्रव्य की मुख्यता से पदार्थ को विषय करे वह द्रव्याथिक नय और जो पर्याय की मुख्यता से विषय करे वह पर्यायाथिक नय है। इनमें प्रमाण का विषय ज्ञानगम्य तो है पर शब्दगम्य नहीं है। क्योंकि वाणी में वस्तुगत नानाधर्मों को एक साथ कहने की सामर्थ्य नहीं है। परन्तु नय का विषय ज्ञान गम्य व शब्दगम्य दोनों है। इसलिए नय का विषय समझा जा सकता है और समझाया भी जा सकता है । इसीलिए "शातुरभिप्रायो नयः" अथवा "वक्त रभिप्रायो नयः" इस प्रकार नय को शब्द व ज्ञान रूप दोनों प्रकार से कहा है।
अध्यातनामयों में द्रव्याधिक व पर्यायार्थिक नयों को प्रकारान्तर से निश्चय नय व बवहार नय कहा है। इनका नामान्तरण आत्मा की शुद्ध व अशुद्ध परिणति अथवा मोक्ष मार्च में साध्य-साधन भाव को ध्यान में रखकर किया गया है। क्योंकि संसार पर्याय में जीव न तो सर्ववाशुस है न सर्वधा प्रशुत ही। प्रत्युत बह निश्चय नय से शुद्ध व व्यवहार नाम से प्रबुद्ध मामा नवा है।
यथा शुद्धस्यकान्तेनात्मनो न कर्म कलङ्कावलेपः सर्वथा निरञ्जनत्वात् सर्वथा शुद्ध कान्तेऽपि तथात्मनो न कदापि शुद्ध स्वभाव प्रसंगः स्यात् तन्मयत्वात् ॥ पालाप यद्धति ॥
अर्थ-यदि पात्मा को एकान्त शुभ माना जाय तो सर्वथा निरञ्जन होने से कर्मबढ़ता सिद्ध नहीं होगी और यदि एकान्त अशुद्ध माना जाब तो सर्वषा अशुद्ध होने से
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