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जैन दर्शन की आधारभित्ति : अनेकांतवाद एवम् स्याद्वाद
उन्होंने वस्तु के अनेक गुणों एवम् अनन्त धर्मों को प्रत्येक दृष्टि से जानकर समग्र रूपमें पहचान पाने तथा सत्य की प्रत्येक सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए तत्व निरूपण का मार्ग प्रशस्त कर निषेधात्मक चिंतन नहीं अपितु तल चिंतन के प्रत्येक पक्ष का विधानात्मक रूप प्रस्तुत किया।
__ हम यदि ऊपरी मंजिल तक पहुंचना चाहते हैं तो जमीन से उछलकर एकदम नहीं पहुंच पाते, एक-एक सीढ़ी चढ़कर अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं । 'स्यात्' शब्द भी पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति का माध्यम है, तरीका है। यह द्रष्टा को उसकी सीमाओं से अवगत कराए रहता है तथा वस्तु को उसके एक-एक धर्म की मुख्यता से बतलाते हुए उसे समग्र रूप से देख सकने, वस्तु के विरोधी प्रतीत होने वाले गुणों का अपेक्षा से कथन कर तथा प्रतीतियाँ कराकर उसके अंतिम सत्य तक पहुँच सकने की क्षमता एवम् पद्धति प्रदान करता है। अनेकांत स्वरूपात्मक वस्तु को सापेक्ष दृष्टि से सम्यक् एकांत रूप में देखकर नयों की अपेक्षा से उसके एक-एक धर्म को पहचानने के अनन्तर एकान्तों के विरोध को समाप्त करना है। महावीर की स्याद्वादी कथन शैली
महावीर ने अपने युग के तार्किक दार्शनिकों की जिज्ञासाओं का स्याद्वादी कथन शैली से समाधान किया। प्रश्नों का विरोध महावीर का उत्तर पाकर शान्त संतुष्ट हो गया।
गौतम को जिज्ञासा थी कि जब जीव गर्भ में प्रविष्ट होता है तब यह सेन्द्रिय होता है या निरिन्द्रिय ? महावीर ने उत्तर दिया कि कथंचित सेन्द्रिय प्रविष्ट होता है और कथंचित निरिन्द्रिय।
जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। उत्तर ने उलझा दिया । गौतम ने पुनः प्रश्न किया-यह कैसे ?
भगवान् ने उत्तर दिया-'द्रव्येन्द्रियों की अपेक्षा सेन्द्रिय प्रविष्ट होता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा निरिन्द्रिय ।१२
पहले तो सुलझ गया था, अपेक्षा से समझाने पर बिलकुल साफ हो गया।
अपेक्षा से बतलाने पर विरोधी प्रतीतियां स्वत: समाप्त हो जाती है, एक-एक धर्म की मुख्यता से बतलाने पर भी कथन शैली के कारण वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता की तरफ ध्यान बना रहता है। स्यावाद : सत्य की खोज
शोध की यात्रा पूर्वानुमान से प्रारम्भ होती है, विवेच्य विषय के पूर्ण साक्षात्कार . तक अनवरत चलती रहती है। कभी-कभी हम किसी तथ्य को सत्य समझ लेते हैं
और लगता है कि प्रश्न का उत्तर मिल गया। दूसरा गवेषक आता है विचारता है और हमारी स्थापनाओं की अप्रमाणिकता सिद्ध कर देता है इसी कारण सत्य के खोंजी को समस्त पूर्वाग्रहों को छोड़कर विवेकपूर्ण ढंग से संधान ही नहीं, अनुसंधान करना होता है।
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