________________
५८
विक्रम
वर्ण का नहीं है। परिपक्व होने के अनन्तर वह रक्त वर्ण का है किन्तु श्याम वर्ण का नहीं है। जब घट का परिपाक हो रहा है (श्याम वर्ण से रक्त वर्ण में परिवर्तन हो रहा है) तब अस्ति-नास्ति उभयविध है। अस्ति-नास्ति दोनों की सत्ता युगपत् होना
सम्भव नहीं है अतः घट का वर्ण अवक्तव्य है ।) (५) 'स्यात् अस्ति अवक्तव्यो'--- अर्थात् किसी अपेक्षा से (घट का) अस्तित्व है तथा
(घट) प्रवक्तव्य भी है । (किसी दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल, आदि से घर का अस्तित्व है किन्तु जब इसका स्पष्टतया निदर्शन न हो सके तो धर प्रवक्तव्य है। उदहारण घट रक्त वर्ण का है किन्तु जब वर्ण का
स्पष्ट निदर्शन न हो तो घट अवक्तव्य है ।) (६) 'स्यात नास्ति वक्तव्यो- अर्थात् किसी अपेक्षा से (घट) नहीं है तथा प्रवक्तव्य
भी है। (घट अपने से भिन्न पदार्थ के क्षेत्र, द्रव्य, काल, आदि की दृष्टि से नहीं है तथा इसकी स्पष्ट
स्थिति न होने के कारण प्रवक्तव्य भी है।) (७) 'स्यात् अस्ति नास्ति प्रवक्तव्यो
अर्थात् किसी अपेक्षा से (घट) है, नहीं है एवम् अवक्तव्य है। (घट स्व द्रव्य, काल एवम् क्षेत्रादिक की दृष्टि से है किन्तु परद्रव्य काल एवम् क्षेत्रादिक की दृष्टि से नहीं है। स्पष्ट स्थिति न होने से प्रवक्तव्य भी है।)
बौद्ध दर्शन के अव्याकृत में अस्ति, नास्ति, उभय एवम् नोभय के दृष्टान्त मिलते हैं। यह सत्ता की चतुष्कोटिसंवलित स्थिति है। वेदान्त में भी चतुष्कोटिक तर्को की विवेचना प्राप्त होती है। शेष तीन कोटियों की प्रभावना केवल जैन दर्शन में ही मिलती है; अन्यत्र नहीं।
स्याद्वाद की अंगभूति सप्तभंगी लक्षण भित्र है-"प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिबेधकल्पना सप्तभंगी' (प्रश्नानुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि एवम् प्रतिबेध रूप धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है।) वस्तु स्वरूप को पहचानने एवम् अभिव्यक्त करने की वैज्ञानिक प्रणाली
भगवान महावीर को जानने का रास्ता अज्ञात से ज्ञात का नहीं, ज्ञात से अज्ञात की ओर का है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु को हम अपनी ऐकांतिक दृष्टि से एकदम नहीं समझ सकते किन्तु वस्तु के एक-एक पक्ष, गुण, धर्म को क्रमश: जानते हुए अंततः उसे समग्र रूप से जान पाने का मार्ग चुन सकते हैं। महावीर ने यही मार्ग चुना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org