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________________ विक्रम गाने वाली है" इसका अर्थ दो श्राता अलग-अलग लगा सकते हैं । प्रत्येक शब्द भी 'वस्तु' को नहीं; वस्तु के भाव को बतलाता है जो वक्ता एवम् श्रोता दोनों के संदर्भ में 'बुद्धिस्थ' मात्र होता है । " प्रत्येक व्यक्ति अपने घर जाता है" किन्तु प्रत्येक का 'घर' अलग होता है । संसार में एक ही प्रकार की वस्तु के लिए कितने भिन्न शब्द हैं- इसकी निश्चित संख्या नहीं बतलायी जा सकती है । एक ही भाषा में एक ही शब्द भिन्न अर्थी और अर्थ छाया में प्रयुक्त होता है । इसी कारण अभिप्रेत अर्थ की प्रतीति न करा पाने पर वक्ता को श्रोता से कहना पड़ता है कि मेरा यह अभिप्राय नहीं था अपितु मेरे कहने का मतलब यह था । बर्शन की गहराइयाँ एवम् भाषा की लाचारी जब इन्द्रियों द्वारा गृहीत ज्ञानाधारों की अभिव्यक्ति में भाषा की सीमाएँ प्रकट हो जाती हैं तो इन्द्रिय निरपेक्ष ज्ञान की अभिव्यक्ति के समय भाषा कितनी लाचार हो जाती होगी इसकी कल्पना की जा सकती है । 'सत्' की चिन्तकों ने अनुभूति की । अनुभूति के विषय को वाणी देते समय तत्वद्रष्टाओं को भाषा की लाचारी का बोध बार-बार हुआ । उपनिषदकारों ने 'परब्रह्म' को इसी कारण 'नेति नेति' कहा ", वेदांत्तियों ने अनिवर्चनीय कहा क्यों कि वह वाणी का विषय नहीं बनता ।' महात्मा बुद्ध ने तत्व के बहुत से निगूढ़ रहस्यों को अव्याकृत कहकर छुट्टी पा ली ।" ५६ जैन दर्शन तो पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक मानता है । जैनाचार्यों ने भी इसी कारण कहा कि आत्मा का किसी भी शब्द द्वारा कथन करना सम्भव नहीं है । उसके जितने भी पर्यायवाची नाम हैं, वे उसके विशिष्ट धर्मों का ही कथन करते हैं । इसी कारण निर्विकल्प आत्मा का ज्ञान कराने के लिए प्राचार्य कुंदकुंद को 'राम्रो जो सोऊ सो चेव' ( जो ज्ञात हुआ वह तो वही है) कहना पड़ा । " अनन्त स्वरूप संकेतिका वाक्य पद्धति की खोज यह विवशता है कि तत्व दर्शन का निरूपण करना ही होता है । यदि पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है तो उसके स्वरूप विवृति के लिए अनन्त स्वरूप वाक्य पद्धति ही अपेक्षित है । यह पद्धति ही स्याद्वाद है । सप्तभंगी नय इसकी आधारशिला है । नय- विचार प्रमाण के अतिरिक्त नय को भी ज्ञान का साधन माना गया है । नय एवम् प्रमाण में भेद है । प्रमारण सकल या समग्र वस्तु का ग्राहक है अतः सकलादेशी कहलाता है । नय के द्वारा किसी वस्तु के एक देश या अंश का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । 'प्रमाण' के द्वारा अनन्तधर्मात्मक वस्तु का सर्वांश अखण्ड ज्ञान होता है किन्तु 'नय' के द्वारा वस्तु का अंशतः ज्ञान होता है । सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु एकांतस्वरूप है । अंशग्राही नय की अपेक्षा एकांतरूप हैं । 'नय' प्रमाण का एकदेश है । 'प्रमाण' के द्वारा हमें समस्त धर्मों के साथ वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है जैसे यह कलश है । यह वस्तु का अखण्ड या समग्र ज्ञान है। यही 'प्रमाण' है । किन्तु रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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