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महावीरस्वामी के पूर्व जैनधर्म
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उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित केशी- गौतम संवाद से पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों के मौलिक स्वरूप तथा महावीर के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों भित्रता स्पष्ट होती है । निर्ग्रन्थों में प्रचलित महावीरयुगीन दो विचारधाराओं के सारभूत तत्वों के आख्यान रूप में इस संवाद का विशिष्ट और ऐतिहासिक महत्व है । पाश्वनुयायी केशी ने महावीरानुयायी गणधर गौतम से प्रश्न किया कि दोनों सम्प्रदाय एक होते हुए भी क्या कारण है कि पार्श्व-सम्प्रदाय चाउज्जाम धर्म तथा वर्द्धमान का सम्प्रदाय 'पंचसिविखय' कहा गया है । पार्श्व का धर्म ‘संतरोत्तर' तथा वर्द्धमान का 'अचेलक' धर्म है । इसी प्रकार एक कार्य प्रवृत्त होने पर भी दोनों में भिन्नता का क्या कारण है ? केशीकुमार के इस सम्बन्ध में किये गए प्रश्न पर, गौतम गणधर ने बतलाया कि पूर्वकाल में मनुष्य सरल किन्तु जड़ (ऋजु जड़) होते थे और परवर्तीकाल में वक्र जड़, किन्तु मध्यकाल के लोग सरल और समझदार (ऋजु प्राज्ञ ) थे, अतएव पुरातन लोगों के लिए धर्म की शोध कठिन थी और पश्चात्कालीन लोगों हेतु उसका अनुपालन ही कठिन था, किन्तु मध्यकाल के लोगों के लिए धर्माचरण सरल था । इसी कारण आदि व अन्तिम तीर्थंकारों ने पंचव्रत तथा मध्य के तीर्थंकारों ने उसे चातुर्याम रूप में संस्थापित किया था । इसी प्रकार उन्होंने बतलाया कि अचेलक या संस्तरयुक्त वेष तो केवल लोगों में पहचान आदि के लिए नियत किए जाते हैं, यथार्थतः मोक्ष के कारणभूत तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही है । गौतम और केशी के बीच इस वार्तालाप के परिणामस्वरूप केशी ने महावीर का पंचहाव्रत धर्म स्वीकार कर लिया ।
गौतम के प्रत्युत्तर से स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ मत पुष्ट धार्मिक सिद्धान्तों से प्राप्लावित था, जबकि महावीर के द्वारा उद्घोषित निर्ग्रन्थ मत में धार्मिक सिद्धान्तों के साथ-साथ एक मौलिक दार्शनिक विचारधारा भी थी; जो दोनों तीर्थंकारों के देशकाल और जैनधर्म के विकासक्रम का परिचायक है ।
पार्श्वनाथ की धर्मदेशना के सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । परवर्ती जैन परम्परा में वर्णित पार्श्वनाथ के उपदेशों से ज्ञात होता है कि इन्हें मानवमात्र में समानता में विश्वास था और वे वर्णभेद को अस्वीकार करते थे । वैदिक साहित्य में प्रतिपादित नारी के हीन अस्तित्व को अस्वीकार करने वाले पार्श्वनाथ प्रथम महान मनीषी थे और अपने चतुर्विदसंघ में नारी को स्थान देकर साध्वी श्रथवा श्राविका के रूप में इन्हें भी धर्ममार्ग पर चलने और मुक्ति की और उन्मुख होने का उन्होंने अवसर प्रदान किया । अहिंसा को पार्श्वनाथ ने अपने धर्म का आधार घोषित किया तथा कैवल्य प्राप्ति द्वारा प्रतिपादित कठोर तप के विधान का पालन कर कई मुमुक्षुत्रों ने निर्वाण प्राप्त किया था । मूल रूप में भगवान महावीर के सिद्धान्त भी पार्श्वनाथ के समान ही थे, केवल महावीर ने चतुर्याम के स्थान पर पाँच महाव्रतों और त्रिरलों का सागोंपांग प्रतिपादन किया । ७ पार्श्वनाथ के अनुशासन में साधुओं हेतु व्यवहार में जुनकप्प का विधान था " तथा उनके द्वारा प्रतिपादित पाप के विभिन्न वर्गों को महावीर ६ लेश्याओं के रूप में प्रतिष्ठित किया था। एच. याकोबी का विचार है कि पार्श्वनाथ के अनुशासन एवम् सिद्धान्तों में निश्चित रूप से उनके निर्वाण के पश्चात् महावीरयुग तक आते-आते अन्तर हो चुका था, इस तथ्य को कालचक्रानुसार स्वाभाविक माना जाना चाहिए।
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