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________________ विक्रम जैन परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ के समय का संग्रहीत जैन पवित्र साहित्य 'पूर्व' कहलाता था । सम्भवतः महावीर से प्राचीन ग्रंथ होने से उनकी संज्ञा पूर्व थी और ये अंग साहित्य से पूर्वतर थे । सामान्यतः इन १४ पूर्वो को जैनो के साथ साथ आजीविका भी पवित्र मानते थे । आजीविक संघ के प्रधान गोशाल ने पूर्वो से ही प्रेरणा ग्रहण की थी । लुप्त आजीविक साहित्य - श्राठ महानिमित्तों एवम् दो मार्गों के कुछ भाग के आधार रूप में इन पूर्वो को ही विद्वानगरण मानते हैं । 상 जैन परम्परा के अनुसार १४ पूर्वो को १२ वें अंग - दृष्टिवाद में संकलित किया गया था, जिनके अन्तिमज्ञाता स्थूलभद्र थे, जो जैन प्राचार्य परम्परा में महावीर के पश्चात् आठवें आचार्य माने जाते हैं । समयान्तर में १४ पूर्वो के बजाय १० पूर्वो का ही अस्तित्व शेष रहा और बाकी विस्मृत हो गए । परवर्ती युग में दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग को श्रुत परम्परा में सुरक्षित नहीं रखा जा सका और पार्श्वनाथ युगीन साहित्य ही प्रज्ञान हो गया । डॉ. हीरालाल जैन का विचार है कि दिगम्बर परम्परा में मान्य पुष्पदन्त एवम् भूतबलि द्वारा रचित षटखण्डागम का आधार अन्य श्री साहित्य के साथ दृष्टिवाद भी था, फलतः १४ लुप्त चौदह पूर्वो का प्रतिनिधित्व करने वाला एकमेव प्राप्य ग्रंथ षटखण्डागम हैं; परन्तु इस मान्यता को श्वेताम्बर परम्परा मान्य नहीं करती । श्वेताम्बर मान्य आगम परम्परा को अस्वीकार करते हुए षट्खण्डागम के आधार ग्रंथों में दृष्टिवाद को मान्य करने की दिगम्बर परम्परा विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती क्योंकि यह ग्रंथ परवर्ती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परानुसार दृष्टिवाद का अस्तित्व लुप्त होने की मान्यता परिपक्व स्थान पा चुकी थी । जैन श्रागम साहित्य एवम् प्रारम्भिक बौद्ध ग्रंथों से पार्श्वनाथ की धर्मदेशना में उद्घोषित सिद्धान्तों का आभास होता है । विभिन्न स्रोतों से ज्ञात पार्श्वनाथ के चतुर्यामधर्म के सिद्धान्त पूर्वतर अवश्य हैं, परन्तु उनमें महावीर के समान दार्शनिक गम्भीरता की अपेक्षा उच्च एवम् व्यावहारिक कठोरता की प्रतिष्ठा द्वारा मानव को धर्मोन्मुखकर केवल्य की और अग्रसारित करने के सोपान निहित थे । पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म में नैतिक बन्धन को अनिवार्य तत्व के रूप में स्थान देकर उनके अनुयायियों हेतु उनका प्रावधान किया गया था । पार्श्वनाथ इस व्यवहारिक एवम् नैतिक यम-नियमों का महावीर के अतिरिक्त बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतमबुद्ध एवम् आजीविका प्राचार्य मंखलिपुत्र गोशाल ने भी अपने अनुयायियों हेतु अपनाया था । पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिष्ठित ये यम-नियम न केवल चतुर्विदसंघ के संगठन हेतु उपादेय थे बल्कि मानव समुदाय की स्वाभाविक स्वतंत्र, स्वशासन एवम् अनुशासन वृत्ति के ये प्रतिष्ठित मापदण्ड भी थे । जैन परम्परा से ज्ञात पार्श्वनाथ के द्वारा घोषित यम-नियम निर्ग्रन्थानुयायियों के सुसंगठन की धारभूत पीठिका थे । बी. एम. बरु " का विश्वास है कि पार्श्वनाथ ही महावीर के दार्शनिक पूर्वाचार्य थे तथा उनके द्वारा संस्थापित व्यवहारिक नियम ही जैन दार्शनिक यथार्थता के मूलभूत आधार बने । इन यम नियमों में निरकुंशता और भ्रांतियों का प्रभाव था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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