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महावीरस्वामी के पूर्व जैनधर्म
कठोर जीवनयापन को सहन नहीं कर पाने के कारण वे ब्राह्मण धर्मानुयायी परिव्राजिकाएँ बन गई थीं। पाश्र्वानुयायी मुनिचन्द्र 'कुमाराय सन्निवेस' में एक कुम्हार की दूकान में अपने शिष्यों सहित ठहरे थे। विजया एवम् प्रगभा नामक पार्श्व मतानुयायी श्राविकाओं ने निर्ग्रन्थ मत से परिचित होने के कारण कूविय सन्निवेस में महावीर और गोशाल की द्वाररक्षकों से रक्षा की थी। ६ भगवतीसूत्र में पार्वानुयायी श्रावक गांगेय द्वारा वारिणयग्राम में चतुर्यामधर्म के स्थान पर महावीर के पंचमहाव्रतों को स्वीकार करने का विवरण है । पुण्डरिय द्वारा पार्श्व मत को स्वीकार करने ", तुंगिय नगर में पार्वमतानुयायी ५०० साधुओं के अाने, विभिन्न गृहस्थों द्वारा पार्श्व के अनुशासन को स्वीकार करने आदि विभिन्न वर्णनों से महावीरयुग में पार्श्वनाथ के मत की लोकप्रियता एवम् प्रचार ज्ञात होता है । रायपसनेयसूत्र में पार्श्वनाथ के अनुयायी केशी द्वारा सेयविया में पएसि के साथ आत्मा और शरीर की पहिचान के सम्बन्ध में वार्तालाप करने का वर्णन उपलब्ध है। पार्श्वनाथ के एक अनुयायी उदक को गणधर गौतम ने सफलतापूर्वक महावीर के धर्म की और उन्मुख कर लिया था। उदक-गौतम संवाद से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ के अनुयायी 'निगुंठ कुमारपुत्त' तथा महावीर अनुयायी 'निगुठ नाथपुत्त' की संज्ञा से सम्बोधित किये जाते थे।
लगभग ७० वर्ष तक अपने उपदेशामृत द्वारा जनकल्याण का मार्ग उद्घोषित करते हुए पार्श्वनाथ ने १०० वर्ष की आयु में सम्मेदशिखर पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। बिहार के हजारी बाग जिले में स्थित इस निर्वाणस्थल को आजकल पार्श्वनाथगिरि भी कहा जाता है।
पार्श्वनाथ ने अपने धर्म संघ को चतुर्विधसंघ में सुसंगठित कर अद्भुत एवम् परिपक्व व्यवस्था का स्वरूप प्रदान किया था। फलतः महावीर के जीवनकाल तक उनके संघ का सुसंगठित रूप अणुण्ण बना रहा । पार्श्वनाथ के पाठ गण थे, जिनके आठ गणधर --शुभ, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्माचरित, साम्य, श्रीधर, वीरभद्र एवम् यशस् थे। पार्वानुयायी चतुर्विध संघ में १६,००० साधुवर्ग के प्रधान आर्यदत्त, ३८,००० साध्वियों की प्रधान पुष्पचूला; १,६४,००० श्रावकों के प्रधान सुक्रत और ३,३६,००० श्राविकाओं को प्रधान सुनन्द्रा का ज्ञान कल्पसूत्र से होता है। श्रमणों में ३५० श्रमणगरण चार पूर्वो के ज्ञाता; १४०० अवधिज्ञानी; १००० केवलज्ञानी, ११०० वैक्यिलब्धिधारी, ३०० वादी; १००० पुरुष एवम् २,००० महिलाएँ ऐसे थे जिन्हें सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी, ७५० मन: पर्यायज्ञानी, ६०० वादी एवम् १२०० अनुत्तरोपपातिक अपने अन्तिम जन्म में थे। दिगम्बर परम्परा में कुछ बैभिन्न्य है-वे दसगण और दसगणधर मानते हैं, जिसमे स्वयंभू प्रधान थे। इसी प्रकार दिगम्बर श्रमणसंख्या १,२६,००० और साध्वियों की संख्या ३००,००० मानते है। इसी प्रकार वे जो श्रावक और श्राविकानों की संख्या का विस्तार मान्य करते हैं वह अतिशयोतिक्पूर्ण प्रतीत होता है । पार्श्वनाथ के चतुर्विधसंघ के संगठन से उनकी अदम्य प्रतिभा एवम् संगटन शक्ति का ज्ञान भी होता है।
पार्श्वनाथ ने अपनी धर्मदेशना के अन्तर्गत कई नगरों में चातुर्मास किए थे, इनमें अहिच्छत्रा, आमलकप्पा, सावत्थी, कम्मिलपुर, सागेय, रायगिह, कोसाम्बी आदि प्रमुख थे। इनमें से अधिकांश नगर भगवान् महावीर के समय भी जैनधर्मानुयायियों के केन्द्र थे।
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