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विक्रम
और उनसे सम्बद्ध साधन सामग्री का श्रमण संस्कृति से सम्बन्ध स्थापित करना भी मृगतृष्णा मात्र है।
___ जैन परम्परा से स्पष्टतः ज्ञात होता है कि सभी तीर्थकरगण आर्यकुलों और आर्य राज्यों से ही सम्बन्धित थे, अतएव किसी आर्येतर संस्कृति से जैनधर्म का सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं है। वेदों के आलोचनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि उदार और अनुदार विचारधाराएँ अनवरत बनी रहीं, जिसके परिणामस्वरूप ही समय-समय पर हिंसक एवम् भौतिक सुख से सम्बन्धित यज्ञों का विरोध और ज्ञानपक्ष की उच्चता का प्रतिपादन होता रहा। वेदों में उल्लेखित वातरशन, मुनि, यति, श्रमण, केशी, व्रात्य, अर्हन शिश्नदेव आदि सार्थक शब्दों को वेदविरोधी श्रमण-मान्यताओं से सम्बन्धित करने के सबल आधार नहीं हैं। वेदों में वर्णित 'मुनि' का अलौकिक व्यक्तित्व और व्रात्य का विवरण तथा तैत्तरीयारण्यक२२ में उल्लेखित वातरशन ऋषि एवम् श्रमरण आदि आर्येतर मान्यताओं से सम्बन्धित अवश्य है, परन्तु इन समस्त उल्लेखों को जैनधर्म से यथावत् सम्बन्धित करना युक्तियुक्त नहीं है । वेद विरोधी मान्यताओं से सम्बन्धित पार्यो को भी इनमें शूद्र एवम् व्रात्य माना गया है, 'आर्य' शब्द तो वेदों में संस्कृति सूचक है, अतएव आर्य संकृति से इतर आर्य समुदाय को भी हेय माना जाना आश्चर्यजनक नहीं है।
पंचविश ब्राह्मण में व्रात्यों की विशेषताओं सहित वितरण है- इसमें उन्हें वेदों का अध्ययन नहीं करने वाले और वैदिक साहित्य में प्रतिपादित यम नियमों का विरोधी बताया गया है। व्रात्यों को शुद्ध उच्चारण नहीं करने और वेदेतर भाषा बोलने वाले भी कहा गया है। सम्भवतः यह भाषा प्राकृत रही हो। उपनिषदों में श्रमण का विवरण और वैदिक साहित्य में इन्द्र विरोधी चमत्कारी यतियों का वर्णन है, जिनके शरीर को शृगालोको फेंक देने का उल्लेख है। अर्हत् के ऋग्वेदिक उल्लेख को अर्हत के आदर्श से सम्बन्धित करना सम्भव नहीं है।
वस्तुस्थिति तो यह है कि प्रावैदिकयुग में जैनधर्म के अस्तित्व से सम्बद्ध विवरण सन्देहास्पद है, परन्तु वैदिक साहित्य में वेद एवम् इन्द्र विरोधी जन समुदाय से सम्बन्धित श्रमण, यति, व्रात्य, वातरशन, मुनि आदि उल्लेखों से वेदों में प्रतिबिम्बित आर्यो की धार्मिक मान्यताओं की प्रतिद्वन्द्वी विचारधारा का सबल अस्तित्व एवम् जन प्रतिष्ठा का ज्ञान होता है। मौलिक विचाराधारा एवम् मान्यताओं तथा यज्ञ विरोधी मुखरता के कारण इस प्रार्येतर वैचारिक परम्परा को जैनधर्म के निकट मानना असम्भव नहीं है। ज्ञान एवम् कर्म की प्रधानता, आत्मा के अस्तित्व, वर्ण विरोध आदि मान्यताएँ जैन सिद्धान्तों के निकट है, यद्यपि भगवान पार्श्वनाथ के समकालीन एवम् परवर्ती वैदिक साहित्य में इन मान्यताओं के उल्लेखों को स्वाभाविक माना जाना चाहिए।
एच याकोबी ने जैन ) दार्शनिक मान्यताओं के आधार पर जैनधर्म की प्राचीनता व्यक्त करने का प्रयास किया है। जैनदर्शन में जीव की मान्यता का विस्तार अनुपम है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय रूप में जीवों का विभाजन तथा पृथ्वी के अतिरिक्त
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