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महावीरस्वामी के पूर्व जैनधर्म
( उज्जैयंत) पर्वत पर स्थित सहस्रामवन में प्रव्रज्या ग्रहण की। ५४ दिन की कठोर तपस्या द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर भगवान अरिष्टनेमि ने एक हजार वर्ष की आयु में उर्ज्जयंत पर्वत पर ही निर्वाण प्राप्त किया था ।
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छान्दोग्य उपनिषद् में देवकी के पुत्र कृष्ण को ऋषि घोर अंगिरस का अनुयायी वर्णित किया है, जिन्होंने कृष्ण को तप, दान, श्रार्जव, अहिंसा और सत्यवचन की महिमा समझाई थी ।२७ श्रीकृष्ण ने गीता में भी इन्हीं नैतिक तत्वों को धर्म का मूलाधार निरूपित किया है । जैन परम्परा में वासुदेव कृष्ण और बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को चचेरा भाई एवम् समकालीन वर्णित किया है । श्ररिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण को उपदेश देकर अपना अनुयायी बनाया था, फलतः विद्वानगरण उपर्युक्त घोर अंगिरस की अभिन्नता अरिष्टनेमि से मानने का परामर्श देते हैं । छान्दोग्य उपनिषद् की तिथि भगवान महावीर की समकालीन अथवा कुछ पहले की मानी जाती है, परन्तु जैन परम्परा में अरिष्टनेमि का उल्लेख घोर अंगिरस नाम से अज्ञात है । श्रीकृष्ण की तिथि भी अनिश्चित है तथा सामान्यतः उनका समय ईसा पूर्व दसवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है, अतएव जैन परम्परा का इस दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना चाहिए । भगवान अरिष्टनेमि के प्रभाव से पश्चिमी भारत में जैनधर्म अत्यधिक लोकप्रिय हुआ तथा यादव कुल के बहुसंख्यक क्षत्रियों ने संसार त्यागकर मुक्ति हेतु कठोर तप किए । जैन परम्परा और पौराणिक ब्राह्मण परम्परा में कृष्ण से सम्बन्धित विवरणों में समानता है, फिर भी महाभारत युद्ध के नायक श्रीकृष्ण के साथ अरिष्टनेमि की तिथि मान्य करने में जैन परम्परा से प्रतिकूल परिणाम ज्ञात होंगे । जैन आगम साहित्य में राजमती के कथानक को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ।" तथा प्राचीनता की दृष्टि से अरिष्टनेमि से सम्बन्धित ये विवरण उल्लेखनीय हैं । इनकी परम्परा भी जैनेतर विवरणों से स्वतन्त्र ज्ञात होती है ।
प्राग्वैदिक धर्म :
विद्वानों का एक वर्ग जैनधर्म को वेदों से प्राचीन एवम् आर्येतर धर्म स्वीकार करने का आग्रह करता है । श्री जी. सी. पाण्डे का विश्वास है कि वैदिक काल में प्रचलित यज्ञ विरोधी भावना का मूलाधार हिंसा विरोधी वर्ग का प्रभाव था । जैनधर्म का प्रेरणास्रोत वेदों से इतर एवम् प्राचीन यज्ञविरोधी मान्यताएँ हो रही होंगी। मोहनजोदड़ो एवम् हड़प्पा की नगर सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त कुछ सामग्री श्रमरण अथवा जैन परम्परा के अनुरूप मानने के भी प्रयास हुए हैं । यहाँ से प्राप्त कायोत्सर्ग नग्न मानव मूर्तियों की कुषाणकाल में निर्मित जैन तीर्थंकर मूर्तियों से समानता प्रकट होती है । इन उत्खननों में कुछ मूर्तियाँ पद्मासन मुद्रा में भी मिली हैं। कुछ मूर्तियाँ नाग - मस्तकों वाली भी मोहन जोदड़ो से मिली हैं । ये नाग - मस्तक वाली मूर्तियाँ वैदिक सभ्यता से प्राचीन नागपूजक कबीले से सम्बद्ध मानी गई हैं । पार्श्वनाथ के अतिरिक्त सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर भी नागफण परवर्ती मूर्तियों में बनाया जाता रहा है । सिन्धु घाटी की नगर सभ्यता में प्राप्त इन मूर्तियों को जैन तीर्थकारों की मूर्तियाँ मानने का श्राग्रह ही सम्पूर्ण सभ्यता के परिवेश में हास्यास्पद है । यहाँ की धार्मिक मान्यतानों
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