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________________ विक्रम दशावतार के कई मूर्तिखण्ड मिले हैं जिनमें बुद्ध को तो स्थान दिया जाता रहा, परन्तु ऋषभदेव को विष्णु की मूर्तियाँ और दशावतार - प्रभावलियों पर स्थान नहीं दिए जाने का कारण भी इन पौराणिक मान्यताओं का जनप्रिय नहीं होना ही प्रतीत होता है । जैन परम्परा में प्रथम जिन, प्रथम तीर्थंकर और जैनधर्म के संस्थापक के रूप में ऋषभदेव की प्रतिष्ठा के परिचायक ये विभिन्न जैनेतर उल्लेख हैं, यद्यपि उपर्युक्त सभी उल्लेख जैन ग्रंथों से प्रभावित और उनसे परवर्ती हैं । १४ ऋग्वेद एवम् परवर्ती वैदिक उल्लेखों को ऋषभदेव से सम्बद्ध मानने में विद्वान - गरणों में मतैक्य नहीं है । वैदिक साहित्य अथवा महावीर के समकालीन बौद्ध साहित्य में ऋषभदेव का जैनधर्म के संस्थापक के रूप में उल्लेख नहीं होने से मतवैभिन्य को बल मिला । इनका सर्वप्रथम चरित वर्णन जैन कल्पसूत्र में उपलब्ध है तथा इसे प्राचीन जैन परम्परा से सम्बन्धित उल्लेख मानने का परामर्श दिया जाता रहा है । ऋषभदेव से सम्बन्ध किये जाने वाले नगरों, बस्तियों आदि के आधार पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इनका समय निर्धारित होना शेष है; परन्तु ऐसा कोई पुष्ट प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर जैन अनुश्रुतियों में वर्णित ऋषभदेव को प्रथम जिन, प्रथम तीर्थंकर और जैनधर्म का संस्थापक मानने में हिचकिचाहट हो । वर्तमान जैन - शासन के संस्थापक भगवान महावीर को जैन परम्परा मानती है, अतएव जैन स्रोतों से इतर सन्दर्भों के आधार पर ऋषभदेव की ऐतिहासिकता सिद्ध करना सम्भव नहीं है, यथार्य में जैन परम्परा स्वयम् उन्हें प्राग् ऐतिहासिक मानती है । श्ररिष्टनेमि : भगवान ऋषभदेव के पश्चात् बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि अथवा नेभि का जीवनचरित कल्पसूत्र में वर्णित है । नेमि के पिता समुद्रवविजय को यदुवंशी महाराज अन्धवृष्णि का ज्येष्ठ पुत्र कहा गया है, जो यमुना के तट पर बसे शोरिपुर के शासक थे । मि की माता का नाम शिवादेवी था, जिन्होंने पुत्र के जन्म के पूर्व स्वप्न में एक नेमि और रिष्ठयुक्त चक्र आकाश में उड़ता हुआ देखा था, फलतः नवजात पुत्र का नामकरण अरिष्टनेमि किया गया । जैन अनुश्रुति के अनुसार समुद्रविजय के अनुज वसुदेव के ही ज्येष्ठ पुत्र वासुदेव कृष्ण थे । कंस के संहार के पश्चात् मगधराज जरासंध के आक्रमण के भय से श्रीकृष्ण अपने बंधु-बांधवों सहित द्वारिका में राज्य स्थापित कर रहने लगे थे । समुद्रविजय के चचेरे भाई उग्रसेन की कन्या राजमती से श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि का विवाह सम्बन्ध निश्चित किया था । सम्भवतः जरासंघ के भय से उग्रसेन भी अन्य यादवों के साथ द्वारिका में ही रहने लगे थे । अरिष्टनेमि की बारात उग्रसेन के महल में सज्जित विवाहस्थल की ओर शोभायात्रा में जा रही थी, तभी विवाह भोज के लिए एकत्रित असंख्य पशु-पक्षियों के वध की कल्पना मात्र से भगवान नेमि करुणार्द्र हो गए और शोभायात्रा छोड़कर संयम लेने को तत्पर हो गए । उन्होंने संसार त्यागकर द्वारिका के निकट रैवतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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