SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीरस्वामी के पूर्व जनधर्म इन पौराणिक आख्यानों में विष्णपुराण का विवरण प्राचीन है, जिसको परम्रागत रूप में परवर्ती पुराणों ने भी अपना लिया है। भागवतपुराण में गौतमबुद्ध के समान ऋषभदेव को विष्णु के अवतारों में से एक अवतार मानना ब्राह्मणेतर धर्मों को पचा लेने की प्रक्रिया का परिणाम था, परन्तु जैनधर्म की प्रतिष्ठा जनधर्म के रूप में हो जाने तथा राज्याश्रय प्राप्त होते रहने और प्राचार प्रधान धर्म होने से बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म का भारत में ह्रास नहीं हो सका । यह कहना कठिन है कि ऋषभदेव का विष्णु के अवताररूप में प्रतिष्ठित कर लेने के पुराणकार के प्रयास का जैनधर्मानुयायियों पर प्रभाव नहीं गिरा होगा। उत्तर भारत की कुछ जातियों (यथा-अग्रवाल) में जैन, वैष्णव, शैव, शाक्त आदि विभिन्न मतों को मानने वाले वर्गों के मूल कारणों में भागवत एवम् शिव पुराणों में पुष्ट की गई मान्यताएँ भी एक कारण रही होगी। इस दृष्टि से अग्रवाल जाति के धार्मिक विश्वासों के सम्बन्ध मे शोध कार्य अपेक्षित है। ब्राह्मण परम्परा में भागवतपुराण में ऋषभदेव का विस्तृत चरित वर्णित है, उसमें यत्रतत्र जैन परम्परा से इतर मान्यताएँ और विवरण है। इसमें ऋषभदेव के मातापिता का नाम मरुदेवी और महाराज नाभि दिया है।८ परन्तु पत्नी का नाम इन्द्र द्वारा दी गई कन्या जयन्ती कहा गया है, जबकि जैन परम्परानुसार इन्द्र ने सुनन्दा एवम् सुमंगला से भगवान ऋषभदेव का विवाह रचाया था, जिसे पृथ्वी पर विवाह-संस्कार का प्रारम्भ माना गया है ।२० जैन-परम्परा के अनुसार ऋभषदेव के चिन्ह पुराणकार ने वर्णित किये है, परन्तु विष्णु का अवतार मानने के कारण वज्र, अंकुश, चक्र आदि विष्णु के चिन्ह भी माने गये हैं । २५ पुराणकार ने ऋषभदेव को आनन्दानुभव-स्वरूप और साक्षात् ईश्वररूप तथा सत्यधर्म की शिक्षा देने वाला बताया है। जो लोग धर्म का आचरण करके तत्वचिंतन से अनभिज्ञ थे, उन्हें ऋषभदेव ने सत्यधर्म का उपदेश देकर सन्मार्ग पर अग्रसर किया।२२ ऋषभ भागवतपुराण में चराचर भूतों में व्याप्त और अगम्य परमात्मा भी कहा गया है । २३ जैन-परम्परा में ऋषभदेव की वरिणत अपरिग्रहवृत्ति को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि इन्होंने केवल शरीर मात्र का ही परिग्रह रखा और सब कुछ त्यागकर विरक्त हो गए।" ऋषभदेव के तप की पराकाष्ठा का वर्णन करते हुए पुराणकार ने वरिणत किया है कि तपस्या के कारण उनका शरीर कृश हो गया और शिराएँ तक दृष्टिगोचर होने लगी ।२५ भागवत में स्पष्ट रूप से ऋषभ को सम्पूर्ण वेदों, देवताओं, ब्राह्मणों और गौओं का परमगुरु तथा उनके मंगलमय चरित को श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित्त से सुनने और सुनाने वालों को भगवान् वासुदेव का अनन्य भक्त घोषित किया है,२६ जो कि भगवान् ऋषभदेव को विष्णु के अवतार मानने का परिणाम था। उपर्युक्त पौराणिक विवरण जैनधर्म की पुष्ट मान्य परम्परामों से प्रभावित है। सम्भवतः ऋषभदेव का जैन-कथानक पौराणिक मनु के समान प्रतिष्ठित होने तथा उनका वंश अयोध्या का इक्ष्वाकु कुल ही माने जाने की जन मान्यताओं ने पुराणकारों को जिनधर्म के अादि संस्थापक के प्रति आकर्षित किया होगा । बुद्ध की तरह ऋषभदेव को भी पुराणकार ने विष्णु का अवतार घोषित किया था, परन्तु जैनधर्म की सबल आचार-परम्परा एवम् चतुर्विध संघ-शासन के कारण बौद्धधर्म के समान जैनधर्म का अहित न हो सका । विष्णु के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy