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महावीरस्वामी के पूर्व जैनधर्म
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जल, अग्नि, हवा तक में जीव का अस्तित्व स्वीकार करने से प्रकट होता है कि जैनधर्म का प्रादुर्भाव उस समय हो चुका था चब कि उच्च धार्मिक विश्वासों ने भारतीयों को प्रभावित नहीं किया था । जैन तत्वमीमांसा के विकास को भी याकोबी जैनधर्म की प्राचीनता का प्रतिपादक मानते है ।
पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता ।
एच. याकोबी" प्रभृति विद्वानों ने जैन परम्परा का बौद्ध स्रोतों से तुलनात्मक अध्ययन करके पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है तथा उन्हें ही जनधर्म के आदि संस्थापक के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास भी किया है। महावीर के समय में जैनेतर स्रोतों से पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म के अनुयायियों का भी ज्ञान होता है । बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में निर्ग्रन्थों के धर्म को चातुर्याम धर्म के नाम से भी सम्बोधित किया है जो कि जैन परम्परा के अनुरूप है । गौतमबुद्ध के विरोधी एवम् प्रतिद्वन्द्वी धर्मो में निर्ग्रन्थों के धर्म को बौद्ध ग्रन्थों में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, जो कि जैनधर्म की तत्कालीन समाज में प्रतिष्ठा का भी द्योतक है । बौद्ध विवरणों के अनुसार मंखली गोशाल ने मानव समु दाय को छः वर्गों में विभक्त किया था, जिनमें तृतीय वर्ग में निर्ग्रन्थों को रखा गया था, इससे भी निर्ग्रन्थों की एक प्राचीन धर्म के रूप में प्रतिष्ठा एवम् लोकप्रियता ज्ञात होती है । मम निकाय में बुद्ध और सकताल का वार्तालाप वरिंगत है । सकताल का पिता निर्ग्रन्थ मतावलम्बी था, परन्तु वह स्वयम् जैन नहीं था । इस वार्तालाप से निर्ग्रन्थ धर्म तो प्राचीन और बौद्धधर्म नवघोषित प्रकट होता है । जैन स्रोतों के अतिरिक्त बौद्ध त्रिपटकों में भी महावीर एवम् पार्श्वनाथ के अनुयायियों में परस्पर शंकासमाधानार्थ वार्तालाप के विवरण उल्लिखित हैं, क्योंकि प्रारम्भ में पाश्र्वानुयायीगण महावीर शासन को स्वीकार नहीं करते थे । गौतम इन्द्रभूति और केशी का संवाद महावीर से पूर्व निर्ग्रन्थ धर्म के अस्तित्व और पार्श्वनाथ की जीवन्त परम्परा का श्रेष्ठ उदाहरण है ।
विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध जानकारी से पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता प्रकट होती. है, परन्तु उनके जीवन चरित के सम्बन्ध में जैनेतर स्रोतों से कोई जानकारी नहीं मिलती । कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ बनारस के राजा अश्वसेन की रानी वामा से उत्पन्न पुत्र थे । श्रश्वसेन को क्षत्रिय एवम् इक्ष्वाकुवंशज माना गया है, जबकि पौराणिक साहित्य से अश्वसेन नामक एक नाग राजा का ही ज्ञान होता है। पुराणों में उल्लिखित नागराज अश्वसेन की पहिचान पार्श्वनाथ के पिता से नहीं की जा सकती, यद्यपि पार्श्वनाथ से सम्बद्ध की जाने वाली परम्पराओं के आधार पर इस प्रभिन्नता को मान्य करने का परामर्श दिया जाता है । पार्श्वनाथ का जन्म ई. पू. ८७१ में माना जाता है क्योंकि वे शतायु थे और महावीर से २७७ वर्ष पूर्व उनका जन्म जैन परम्परा मानती है ।
पार्श्वनाथ के अलौकिक व्यक्तित्व से सम्बन्धित कई अनुश्रुतियाँ उपलब्ध हैं । पार्श्व नामकरण का कारण उनको माता वामा को अन्धेरे में अपने पार्श्व में कुण्डली मारकर बैठे एक काले फणधर सर्प को देखना ही बताया गया है। • अपने बचपन में भी पार्श्वनाथ ने
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