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महावीरस्वामी के पूर्व जैनधर्म
इसी प्रकार विष्णु के २४ अवतारों की कल्पना भी आठवीं शताब्दी में पूर्ण हो चुकी थी, फिर भी समकालीन कलाकारों ने विष्णु दशावतारों के मूर्तिखण्ड ही निर्मित किए थे। जैन परम्परा में मान्य चौबीस तीर्थकर, बौद्ध एवम् ब्राह्मण मान्यता से प्राचीन हैं। महावीर के समकालीन बौद्ध साहित्य में भी जैनधर्म को प्राचीन धर्म ही माना गया है। पार्श्वनाथ के अनुयायी श्रमणों और महावीर के शिष्यों के पारस्परिक वार्तालापों के उल्लेख बौद्ध साहित्य की तरह जैन साहित्य में भी सुरक्षित हैं। चौबीस तीर्थंकरों की जैन परम्परा ने जैनेतर धर्मों को प्रभावित किया था, जिसके पारिणामस्वरूप चौबीस की संख्या को उन्होंने भी अपनाया। जैनधर्म के आदि संस्थापक के रूप में ऋषभदेव की प्रतिष्ठा को परम्परा प्राचीन है, जिसे ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता, यद्यपि वर्तमान वैज्ञानिक मान्यताओं के प्रकाश में प्रथम तीर्थंकर का समय और परवर्ती जैन साहित्य के तिथिक्रम हेतु आलोचनात्मक मूल्यांकन की दिशा में शोध कार्य अभी भी अपेक्षित है।
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव :
___ जैन परम्परा के अनुसार प्रथम तीर्थंक र एवम् प्रथम जिन तथा जैनधर्म के संस्थापक ऋषभदेव का जन्म अयोध्या के इक्ष्वाकु कुल में हुआ था। इनके पिता अन्तिम कुलकर नाभि और माता मरुदेवी थी। ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए, जिनके नाम पर इस देश की संज्ञा भारतवर्ष पड़ी। ऋषभदेव ने अशिक्षित एवम् कलाविहीन मानव समुदाय को भोजन बनाना, कृषि, लेखन, मिट्टी के पात्र बनाना, चित्र एवम् मूर्ति आदि विभिन्न आवश्यक और उपयोगी कलाएँ सिखाई थीं। इनके समय विवाह पद्धति, दाह संस्कार,स्तूप निर्माण, उत्सवों आदि का प्रारम्भ हुआ । पौराणिक साहित्य में मनुवैवस्वत से सम्बद्ध किए जाने वाले समस्त पुनीत एवम् मानव के विकास से सम्बंधित कार्यों के प्रारम्भ का श्रेय जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान् ऋषभदेव को है। आर्येतर श्रमण संस्कृति से सम्बंधित वैदिक-उल्लेखों को ऋषभदेव के धर्म से सम्बद्ध किया जाता है, यद्यपि इन उल्लेखों का मूल्यांकन आवश्यक है ।
ऋग्वेद में उल्लेखित वातरशना मुनि को श्रमण-संस्कृति से तथा वृषभ के उल्लेखों को ऋषभदेव से सम्बंधित किया जाता है। बेबीलोन के राजा हम्मुरावी (ई. पू. २१२३-२०८१) के अभिलेखों; सिन्धुघाटी एवम् सुमेर की सभ्यताओं, ताम्रश्मयुगीन भारतीय संस्कृतियों आदि से कृषिकर्म में महत्ता के कारण वृषभ का विशिष्ट महत्व ज्ञात है। ऋग्वेद के समकालीन सिन्धुघाटी सभ्यता से प्राप्त बहुसंख्यक बैल की मृण्मयमूर्तियों और मुद्रांकित श्रेष्ठ वृषभाकृतियों से भी इस युग में वृषभ पूजा की लोकप्रियता ज्ञात होती है, अतएव ऋग्वैदिक वृषभ से सम्बद्ध उल्लेखों को प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से अभिन्न बताना उचित प्रतीत नहीं होता। तैत्तिरीय आरण्यक में वातरशना मुनियों का उल्लेख श्रमणों से सम्बंधित प्रतीत होता है, यद्यपि यह आरण्यक भगवान् पार्श्वनाथ की धर्मदेशना के समय से प्राचीन नहीं है ।
इसी प्रकार ऋग्वेद में उल्लेखित अर्हन् की श्रेष्ठता को अर्हत् से सम्बंधित किया जाना भी युक्ति-युक्त नहीं है। अर्हत् का आदर्श जैन परम्परा और हीनयान बौद्धमत में मान्य अवश्य रहा है, परन्तु जैनधर्म में अर्हत् का अादर्श बौद्धमत के समान स्वीकार नहीं
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