________________
विक्रम
का भी निर्वाण स्थल मान्य है । वासपूज्य का निर्वाण चम्पा में तथा बाईसव तीर्थंकर नेमि अथवा अरिष्टनेमि का निर्वाण जूनागढ़ के निकट गिरनार (रैवतक, उर्जयन्त पर्वत) पर होना जैन परम्परा में माना गया है। कल्पसूत्र में चार तीर्थंकर-ऋषभदेव, नेमि पार्श्वनाथ और महावीर का ही विस्तृत चरित वर्णित होना महत्त्वपूर्ण है। जैन परम्परा के अनुसार महावीर का जन्म ई. पू. ६०० और पार्श्वनाथ का उनसे २७७ वर्ष पूर्व अर्थात् ई. पू. ८७७ में हुअा था। नेमि और पार्श्वनाथ के जन्मकाल में ८४, ६५० वर्ष का अन्तर निरूपित किया गया है। नेमि को जैन अनुश्रुति वासुदेव कृष्ण के समकालीन मानती है तथा कृष्ण का समय पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार कलिकाल के प्रारम्भ अर्थात् लगभग ३१०२ ई. पू. माना गया है, यद्यपि अधिकांश विद्वानों के अनुसार महाभारत युद्ध की तिथि ई. पू. ६५० से १४५० के मध्य ही निर्धारित की जा सकती है । इस दृष्टि से पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमि के अन्तरकाल के सम्बन्ध में परवर्ती जैन परम्परा को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है । इस सम्बन्ध में जैन एवम् ब्राह्मण का मौलिकता की दृष्टि से तुलनात्मक मूल्यांकन अपेक्षित है।
चौबीस तीर्थकर
सर्वप्रथम 'दृष्टिवाद' के मूल प्रथमानुयोग में चौबीस तीर्थकरों का उल्लेख था, जो कि लुप्त है । जैन परम्परा में अब से प्राचीन उपलब्ध उल्लेख समवाय, कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति और आवश्यक चूणि में है । प्राचार्य शिलांक द्वारा ८६. ई. में लिखित चउप्पन्न महापुसि चरिय और हेमचन्द्राचार्य के त्रिशष्टिशालाका पुरुषचरित में तथा दिगम्बर पुराण-ग्रंथ जिनसेन के आदि पुराण और हरिवंश पुराण एवम् गुणभद्र के उत्तरपुराण में चौबीस तीर्थंकरों का जीवन चरित विस्तार से वर्णित किया गया है।
तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व में रचित कल्पसूत्र ग्रंथ में केवल चार तीर्थंकरों का ही चरित वरिणत होने से देश-विदेश के विद्वानगण बौद्धधर्म में मान्य २४ बुद्धों की तरह जैनधर्म के २४ तीर्थंकरों को भी कल्पनिक बताने का प्रयत्न करते रहे हैं, यद्यपि कल्पसूत्र में अन्यों का भी उल्लेख है। जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि आजीवक मत के संस्थापक मंखलीपुत्र गोशाल भी अपने को चौबीसवां तीर्थंकर घोषित कर चुका था यद्यपि अन्य स्रोतों से नन्दवच्छ और किससंकिच्छ नामक दो और आजीवक प्राचार्यों का ज्ञान होता है। बौद्ध धर्म में भी २४ बुद्धों की परम्परा मान्य है, जिनमें से महावीर के समकालीन शाक्य गौतम बुद्ध को अन्तिम बुद्ध कहा गया है । चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक ने तृतीय शताब्दी ई पू. के मध्य में कनकमुनि बुद्ध का प्राचीन स्तूप धर्मभावना से द्विगुणित करवाया था तथा द्वितीय शताब्दी ई. पू. में निर्मित भरहुतीस्तूपवेष्ठनी पर शुंगयुगीन लिपि में सप्तमानुषी बुद्धों के प्रतीक सात वृक्ष अकित कर परिचय अभिलेख उत्कीर्ण किए गए थे। पाटलिवृक्ष : भगवतो विपसिनो बोधि; पृण्डरीकवृक्ष : भगवतो सिकीनो बोधि; शालवृक्ष : भगवतो बेसभुवो बोधि, सिरीषवृक्ष : भगवतो ककुसंघषबोधि, उदुम्बरवृक्ष : भगवतो कोनगस बोधि ; वटवृक्ष : भगवतो कासपस बोधि ; अश्वत्थवृक्ष : भगवतो सकबोधि अर्थात् शाक्य गौतम बुद्ध । द्वितीय शताब्दी तक बौद्धधर्म में २४ बुद्धों की मान्यता दृढ़ हो चुकी थी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org