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भगवान महावीर की परम्परा का जन-भाषा के विकास में योगदानं
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धारणा थी कि अपनी-अपनी भाषा में बुद्ध-वचनों को संकलित कर भिक्षु उन्हें दूषित कर रहे हैं। किन्तु भगवान् बुद्ध ने अपने उपदेशों को संस्कृत में प्रचारित करना उस समय ठीक नहीं समझा। उन्होंने भिक्षुओं को अपनी भाषा में बुद्ध-वचन प्रचारित करने की अनुमति दी थीअनुजानामि मिक्खवे सकायनिसत्तिया बुद्ध वचनं परियापुरिणतुं ।
___-मझिम निकाय
भगवान् बुद्ध के इस आग्रह के पीछे सम्भवतः भगवान् महावीर द्वारा प्रयुक्त जन-भाषा का उदाहरण उपस्थित था। महावीर के संघ में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जबकि किसी साधु ने अर्धमागधी को छोड़कर किसी शिष्ट भाषा के प्रति अपना आग्रह व्यक्त किया हो और न ही ऐसा कोई सन्दर्भ उपलब्ध है, जिसमें महावीर ने केवल अर्धमागधी भाषा के प्रयोग की ही बात कही हो। फिर भी जैन प्रागम और व्याख्या-साहित्य की भाषा बहुत समय तक अर्धमागधी ही रही है।
__महावीर ने यद्यपि किसी भाषा विशेष का नाम लेकर उस पर जोर नहीं दिया। किन्तु भाषा की गुणाग्राहता का अवश्य ध्यान रखा है। दशवकालिक में उन्होंने कहा कि जिससे अप्रीति उत्पन्न हो और दूसरा व्यक्ति शीघ्र कुपित हो ऐसी अहितकारी भाषा सर्वथा न बोलें
अप्पत्तियं जेण सिया प्रासु कुप्पेज्ज वा परो। सव्वसो तंन भासेज्जा भासं 'अहियगामिणिं' ।। ८/४७
प्रबुद्ध व्यक्ति हृदय तक पहुंचने वाली भाषा का व्यवहार करें 'वएज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं' तथा यदि कोई व्याकरण की दृष्टि से भाषा बोलने में स्खलित हो जाय तो उसका उपहास नहीं करना चाहिए---
'वइ-विक्खलियं नच्चा न तं उवहसे मुणी।'
जनभाषा के उत्थान में भगवान् महावीर के इस प्रकार के विचार ही आधारभूमि रहे हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर ही महावीर की पराम्परा में भी प्रत्येक युग की जन-भाषा को महत्व प्रदान किया गया है।
अर्धमागधी एवम् शौरसेनी प्राकृत में श्वेताम्बर एवम् दिगम्बर आगम साहित्य की रचना हुई है । तो जैनाचार्यों ने काव्य के लिए महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग किया है। पैशाची प्राकृत में ग्रन्थ रचना कर उन्होंने म्लेच्छ कहे जाने वाले जन-मानस को भी महत्व प्रदान किया है। अपभ्रंश भाषा का साहित्य महावीर की मध्यकालीन परम्परा का हमेशा ऋणी रहेगा। जिसमें उन प्रादेशिक बोलियों को भी साहित्य की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया जो आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी कही जाती हैं। इतना ही नहीं, जैन प्राचार्यों ने दक्षिण भारत की कई भाषाओं को तो अपने धर्म-प्रचार एवम् साहित्य के माध्यम से ही जीवित रखा है। कर्णाटक में जैन धर्म के प्रचार ने बहाँ की कन्नड़, तमिल,
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