________________
१६२
के पथ पर आगे बढ़ सकता है । बचपन की इस घटना की सार्थकता है ।
विक्रम
यह विश्वास जन-सामान्य में पैदा करना महावीर के
साधनकाल में महावीर अधिकतर मौन रहे । इससे उनकी श्रात्म-साधना श्रौर जनसम्पर्क अभियान में कोई बाधा नहीं प्रायी । यह एक और प्रयोग था इस दिशा में कि मन्त्रों का उच्चारण एवम् स्तुति पाठ से ही श्रात्म-साक्षात्कार नहीं होता, अपितु बाह्य इन्द्रियों के मौन एवम् ज्ञान इन्द्रियों के उद्घाटन से भी वह हो सकता है। महावीर के १२ वर्षों के साधनकाल में किसी विशिष्ट भाषा के ज्ञान के न होने से कोई कठिनाई हुई हो, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता । साधना के इन क्षरणों में महावीर उत्तर भारत के विभिन क्षेत्रों में भ्रमरण करते रहे । अतः उस समय की अनेक भाषाओं व बोलियों के सम्पर्क में वे आए । उनका यह भी अनुभव रहा होगा कि प्रायः सभी भाषाएँ किसी न किसी एक धरातल पर एक हैं ।
जन-भाषा को महत्व देने का प्रयत्न महावीर निरन्तर करते रहे । केवल ज्ञान की उपलब्धि के बाद जब उनकी प्रथम देशना हुई तो वह भी एक ऐसी भाषा में हुई, जिसमें सभी भाषाएँ सम्मिलित थीं । शास्त्रों में महावीर के उपदेश की भाषा को दिव्यध्वनि कहा गया है । इस भाषा की यही दिव्यता थी कि वह सभी प्राणियों तक सम्प्रेषित होती थी । श्रध्यात्मिक दृष्टि से वह अनक्षरात्मक तथा व्यवहारिक दृष्टि से अक्षरात्मक थी । इसे सर्वभाषात्मक इसीलिए कहा गया है कि उसमें आर्य, अनार्य सभी भाषाओं के तत्व सम्मिलित थे । महावीर की प्रथम देशना की इस भाषा को अर्धमागधी कहा गया है, जो मागधी और शौरसेनी भाषात्रों के मेल से बनी है। प्राचीन जैन आगम अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत में ही उपलब्ध हैं ।
भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्यों में यद्यपि संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पंडित भी सम्मिलित थे किन्तु सभी ने महावीर के उपदेशों का श्राकलन एवम् प्रचार जन भाषाओं में ही किया है। क्योंकि महावीर के उपदेश किसी जाति, वर्ण व वर्ग विशेष के लिए नहीं थे अतः श्रोता के स्तर एवम् उसकी भाषा के माध्यम अनुसार ही उनको प्रचारित किया गया है। महावीर ने कहा है कि भाषा के दोष एवम् गुरणों को जान कर ही उसका व्यवहार करो तथा भाषा की क्लिष्टता का सदा त्याग करो
भासाइ दोसे व गुरणेरण जाणिया । तीसे य ट्ठे परिवज्जए सया ॥
-- दशवैकालिक, ७/५६
श्रभिव्यक्ति के माध्यय की इसी सरलता के कारण महावीर का धर्म देश के fafe भागों एवम् विभिन्न स्तरों के लोगों के बीच फैल सका 1
Jain Education International
बौद्ध साहित्य में उल्लेख मिलता है कि भगवान् बुद्ध के समय ही उनके कुछ शिष्य बुद्ध वचन को संस्कृत ( छान्दस्) में संकलित करना चाहते थे । क्योंकि उनकी
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org