________________
The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4, 1974
भगवान् महावीर की परम्परा का जन-भाषा के ...
विकास में योगदान
___ डॉ. प्रेम सुमन जैन उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान) भगवान् महावीर का जीवन लोक-कल्याण के लिए समर्पित था। शिष्ट और अभिजात समाज के मंच से उतरकर महावीर जन-जन के आँगन तक पहुंचे हैं। जन-जीवन के विभिन्न पक्षों को महावीर ने अपनी साधना और आचरण के द्वारा ऊपर उठाया है। जन-सामान्य की सामाजिक प्रतिष्ठा, धार्मिक समानता, राजनैतिक स्वतन्त्रता आदि दिलाने में महावीर के योगदान का मूल्यांकन करना चिन्तन का स्वतन्त्र विषय है। इन सबके मूल में भाषा का दायित्व महत्वपूर्ण होता है। जब तक व्यक्ति को अपने चिन्तन की अभिव्यक्ति और उसके माध्यम के प्रयोग की स्वतन्त्रता न हो तब तक उसका पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। अतः महावीर ने भाषा की स्वतन्त्रता पर विशेष बल दिया। उनके जीवन में ऐसे कई प्रसंग पाए हैं जब उन्होंने जन-भाषा के विकास के लिए परम्परा से. प्राप्त ज्ञान और रूढ़ भाषा की व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया।
जैनागमों से हमें पता चलता है कि महावीर ने किसी को अपना गुरु नहीं बनाया। वे किसी परम्परागत व्यवस्था में बँधे नहीं। क्योंकि इससे उन्हें वही सीखना पड़ता जो किसी राजघराने के कुमार को जबरन सिखाया जाता था तथा वे वही भाषा बोल पाते, जिसे कुछ मुट्ठी भर लोग ही समझते व बोलते थे। अतः महावीर ने किसी भाषा विशेष व ग्रन्थ विशेष में सीमित तथाकथित ज्ञान को सीखने से अस्वीकार कर दिया था। वे जन-जन के बीच भ्रमण कर उनकी भाषा विशेष को ग्रहण करने तथा उस जन-भाषा को तत्वचिन्तन से भरने और अर्थवत्ता प्रदान करने में जुट गए थे।
भगवान् महावीर के जीवन की कई इकाइयां अभी स्पष्ट नहीं हुई हैं। प्रतिशयोक्ति और चमत्कारिता से वे ओत-प्रोत हैं । आवरण को हटा कर देखने पर पता चलता है कि महावीर का व्यक्तित्व कुछ दूसरा ही था । जो वे जन-सामान्य के लिए कहना चाहते थे, उसे पहले अपने जीवन में उतारना आवश्यक समझते थे। आगमों में कहा गया है कि महावीर को पाठशाला में ले जाया गया। वहां उन्होंने एक ब्राह्मण बटुक के अनेक प्रश्नों का समाधान पहले दिन ही कर दिया। उनके इस अतिशय ज्ञान से पाठशाला का गुरु भी चकित रह गया। महावीर को पाठशाला की परम्परागत शिक्षा और भाषाज्ञान से मुक्त कर दिया गया। यह घटना एक ओर यह सोचने का संकेत देती है कि सम्भवतः महावीर को किन्हीं कारणोंवश विधिवत् शिक्षा ग्रहण करने का अवसर प्रदान नहीं किया गया, तो दूसरी ओर इससे यह भी फलित होता है कि तत्वचिन्तन एवम् बुद्धि का विकास किसी एक भाषा व जाति में ही सिमटा हुमा नहीं है। व्यावहारिक शिक्षा ही आत्म-ज्ञान का प्रवेशद्वार नहीं है। अक्षर और व्याकरण-ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति भी आत्म-विकास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org