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विक्रम
भाषा-परिवर्तन होता स्वभाविक था । इसके अतिरिक्त भाषा-परिवर्तन का यह भी एक मुख्य कारण माना जा सकता है कि भ. महावीर के निर्वाण के लगभग दो सौ वर्ष उपरान्त ई. पू. ३१० में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल में मगधदेश में बारह वर्षों का सुदीर्घ अकाल पड़ने पर साधुजनों का अपनी चर्यावृत्ति के लिए दक्षिण प्रान्त में समुद्रतीरवर्ती क्षेत्र में विहार करना था । यह सुनिश्चित है कि जैनागमों की भाषा प्राकृत है और प्राकृत हजारों वर्षों तक इस देश की बोल-चाल की भाषा रही है। प्राकृन बोली रही है और संस्कृत भाषा। बोली और भाषा को समझने में प्रायः भ्रम बना रहा है। लोग बोली को 'ग्राम्य भाषा' या 'गॅवारू भाषा' समझते रहे हैं। अधिकतर शिक्षित तथा शिष्ट जनता बोली को भाषा का बिगड़ा हुआ या भ्रष्ट रूप मानती है। परन्तु ऐतिहासिक विकास के अध्ययन से यह निचित हो जाता है कि बोली भाषा का बिगड़ा हुआ रूप नहीं है। आधुनिक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन से यह प्रकट होचका है कि बोलियाँ ही कालान्तर में साहित्य पद पर प्रारूढ़ हुई हैं। यह केवल अंग्रेजी बोलियों के सम्बन्ध में ही तथ्य नहीं है, वरन् विश्व के इतिहास में यह प्रक्रिया घटित हो चुकी है । यही प्रक्रिया संस्कृत के सम्बन्ध में भी लक्षित हुई। जब संस्कृत एक पूर्ण साहित्यिक तथा पूर्ण भाषा बनी, तब प्राकृत बोलियाँ थीं। कालान्तार में प्राकृतों में भी साहित्य लिखा गया ।१२ वास्तविकता सहज रूप में बोली के माध्यम से नि.सृत होती है। अतएव प्रांचलिक वातावरण के चित्रण में क्षेत्रीय बोली का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। यही स्थिति संस्कृतकाल में प्राकृत की थी। भारतीय इतिहास के गुप्त-युग में राजदरबारों में प्राकृत नाटिकानों, सट्टकों के अभिनय के साथ जब संस्कृत नाटकों के अभिनय भी किए जाने लगे, तब संस्कृत नाटकों में प्राकृत का समावेश अनिवार्य हो गया। क्योंकि सामान्य वर्ग के लोग प्राकृत ही बोलते-समझते थे। इसके लिए वैयाकरणों को विशेष प्रयत्न करने पड़े। यथार्थ में उस युग के संस्कृत वैयाकरणों को संस्कृत भाषा को प्राकृत में ढालने के लिए विशेष नियम बनाने पड़े। इस कारण प्राकृत शब्दावली में तोड़-मरोड़ भी हुई और आगे चल कर वे प्राकृत-प्रभ्र पश कहलाई जो वास्तव में बोली थीं । १२ इन प्राचीन भारतीय प्रार्यभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब तक संस्कृत या वैदिक भाषा लोक-जीवन और लोक-बोलियों को आत्मसात् करती रही, तब तक बराबर उसमें विकास होता रहा; किन्तु जब वह शास्त्रीय नियमों में भलीभाँति प्राबद्ध हो गई, तभी उसका विकास रुक गया। इससे जहां वह वाणी 'अमर' हो गई, वहीं उसका प्रवाह अवरुद्ध हो गया और वह 'मृतभाषा' के नाम से अभिहित की गई। यथार्थ में संस्कृत को अमरत्व रूप महर्षि पाणिनि ने प्रदान किया। उनके पूर्व की संस्कृत भाषा के व्याकरणिक रूपों में अत्यन्त विविधता थी। डॉ. पुसालकर का कथन है कि भारतीय पुराणों की भाषा विषयक अनियमितताओं को देखते हुए यह लक्षित किया गया है कि जन बोलियों से प्रभावापन्न संस्कृत के ये पुराण प्राधे के लगभग प्राकृतत्व को लिए हुए हैं। इससे यही समझा जाता है कि मौलिक रूप में ये पुराण प्राकृत में लिखे गये थे, जिन्हें हठात् संस्कृत में अनूदित किया गया। प्राकृतिक प्रबृति का प्रभाव वैदिक ग्रन्थों तक में प्राप्त होता है। परवर्तीकाल में सहज रूप से प्राकृतों का प्रभाव धार्मिक ग्रन्थों, महाकाव्यों और पुराणों पर भी लक्षित होता है।"
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