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भगवान् महावीर की मूलवाणी का भाषा-वैज्ञानिक महत्व
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देवधिगणि क्षमाश्रमण ने लिपिबद्ध किए अर्थात् इतने लम्बे समय तक उन्हें कण्ठस्थ ही रखा जाता रहा और उनका परिणाम भी जो बतलाया गया है, वह वर्तमान में प्राप्त ग्रन्थों की अपेक्षा बहुत ही अधिक था। 'उनके मूल रूप में लिपि-बद्ध न होने के कारण दिग. जैन प्रारम्भ से ही उन्हें नहीं मानते थे।' उनका यह कथन महत्वपूर्ण है कि जिसमें परस्पर विरोधी तथा प्रत्यक्ष एवम् अनुमान प्रमाण से बाधित कथन पाया जाता है, वह आगम प्रामाणिक नहीं है। डॉ. हीरालाल जैन के शब्दों में “दिगम्बर परम्परानुसार उक्त समस्त अंग साहित्य (बारह अंगों में ग्रथित) क्रमशः अपने मूल रूप में विलुप्त हो गया। महावीर-निर्वाण के पश्चात् १६२ वर्षों में हुए आठ मुनियों को ही इन अंगों का सम्पूर्ण ज्ञान था। इनमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु कहे गए हैं। तत्पश्चात् क्रमशः सभी अंगों और पूर्वो के ज्ञान में उत्तरोत्तर ह्रास होता गया और निर्वाण से सातवीं शती में ऐसी अवस्था उत्पन्न हो गयी कि केवल कुछ महामुनियों को ही इन अंगों व पूर्वो का आंशिक ज्ञान मात्र शेष रहा, जिसके आधार से समस्त जैन शास्त्रों व पुराणों की स्वतन्त्रत रूप से नई शैली में विभिन्न देशकालानुसार प्रचलित प्राकृतादि भाषाओं में रचना की गयी।" यथार्थ में वेदों को यथावस्थित सुरक्षित रखने के लिए क्रमपाठ, धनपाठ और जटापाठ आदि की जो व्यवस्था की गयी, उसके कारण ही वे हजारों वर्षों तक मौखिक रूप में प्रचलित रहने पर भी यथास्थित बने रहे। किन्तु जैनागमों को यथावस्थित बनाए रखने के लिए ऐसा कोई उपाय नहीं किया गया। फिर, मगध के बारह वर्ष के दुर्भिक्ष के कारण बहुत-सा अंग-ज्ञान विलुप्त हो गया। प्राज अंगों के रूप में जो अंगधारी साहित्य उपलब्ध होता है, वह पुनरुद्धरण मात्र है। उसमें कहाँ-कहाँ कितना परिवर्तन हुप्रा और कितना अवशिष्ट रहा, पूर्वा पर क्या था, इसकी प्रामाणिकता में सचमुच सन्देह और अविश्वास का जन्म होना स्वाभाविक था। क्योंकि अपने समग्र, रूप में वह उपलब्ध नहीं है, यह सुनिश्चित है। उन अंशों में क्याक्या विषय निबद्ध था, यह दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों साहित्य में भलीभांति उल्लिखित है। दिगम्बर साहित्य में द्वादशांगों में से प्रत्येक अंग के पदों तक का उल्लेख मिलता है। उपलब्ध अंगों की संख्या ग्यारह बतायी जाती है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण की दसवीं शती में गुजरात प्रदेश के वल्लभी नगर में, आज के वाला नगर में साधुसम्मेलन में क्षमाश्रमण देवद्धिगणि की अध्यक्षता में जो वाचना की गयी थी, उनमें ग्यारह अगों का संकलन किया गया था। मुनिश्री नथमलजी के शब्दों में द्वादशांगी का स्वरूप सभी तीर्थंकरों के समक्ष नियत होता है। अनखंप्रविष्ट नियत नहीं होता। अभी जो एकादश अंग उपलब्ध हैं, वे सुधर्मा गणधर की वाचना के है, इसलिए सुधर्मा द्वारा रचित माने जाते हैं । जैनागमों की भाषा
यह पहले ही बताया जा चुका है कि जैनागम दो शाखानों में विभक्त हैं-दिगम्बर और श्वेताम्बर। श्वेताम्बर अपने प्रागामों की भाषा भगवान् महावीर के मुख से विनिर्गत मानते हैं, इसलिए सर्वप्रथम उनका विचार किया जाता है। यह पं. हरगोविन्ददास सेठ ने भी स्वीकार किया है कि जैनागम कथ्य भाषा में रचे गए थे और कथ्य भाषा में समय परिवर्तन के साथ उच्चारण-भेद तथा देश्य शब्दों आदि के प्रयोग-भेद से आगमों में
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