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विक्रम
नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और अन्तिम भद्रबाहु हुए । नन्दिसंघ की इस प्राकृत-पट्टावली के अनुसार वीर-निर्माण सं. १३३ में भद्रबाहु का जन्म हुआ था। उनतीस वर्षों तक वे जीवित रहे । इस समय तक दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ एक रहीं, कहा जाता । श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार भद्रबाहु स्वामी वी. नि. सं. १७० में कालधर्म को प्राप्त हुए थे । सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी ने वह समय १६० वर्षों का माना है । जैन साहित्य में भद्रबाहु नाम के दो प्राचार्यों का उल्लेख मिलता है । द्वितीय भद्रबाहु का समय ई० पू० ५३ कहा जाता है ।
जो अपनी
द्वितीय परम्परा के अनुसार भद्रबाहु स्वामी के अनन्तर स्थूलभद्र हुए । उन्होंने सम्राट् चन्द्रगुप्त को जैनधर्म का उपासक बनाया था। वी० नि० सं० २१५ में उनका देहान्त हुआ था । प्राचार्य स्थूलभद्र से श्वेताम्बर परम्परा प्रारम्भ होती है । इसके पूर्व तक की स्थिति के सम्बन्ध में भी विभिन्न प्रकार की कथाएँ वर्णित मिलती हैं, अपनी परम्परा को प्राचीन या प्रभावकारी बताने के लिए अंकित की गई हैं । किन्तु इन सभी विवरणों से यह भी स्पष्ट कि ईसा पूर्व ३०० के लगभग संघभेद हुआ होगा । भगवान् महावीर की वाणी का सम्बन्ध संघभेद के उद्गम के साथ जुड़ा हुआ है । इस सम्बन्ध में कुछ लिखा जा चुका है ।
मूलवारी का रूप
भगवान् महावीर की मूलवाणी का क्या रूप रहा होगा, यह आज बताना बहुत कठिन है । क्योंकि दावेदार जिसे भगवान् महावीर की वाणी कहते हैं, वह मूल में अक्षरश: भगवान् महावीर द्वारा उच्चरित नहीं है और न तीर्थङ्कर महावीर ने किसी प्रागम ग्रन्थ की रचना की थी । फिर भी, श्रागमों की वाणी को महावीर की वाणी के रूप में मान्यता दी गई है । वह केवल इसलिए है कि तीर्थङ्कर महावीर ने अपनी देशना में तत्त्व का जो स्वरूप जन-सामान्य को समझाया थी, कालान्तर में वह संकलित
होकर आगम के रूप में प्रसिद्ध हो गया । आगम में भगवान् महावीर की वाणी का सार अवश्य है, इसलिए यदि उसे उनकी वाणी माना जाता है, तो वह पारम्परिक है । उनकी परम्परा को सुरक्षित बनाए रखने में ही भगवान् महावीर की वाणी का औचित्य है । इसलिए श्रागम ग्रन्थों की वारणी को 'महावीर वाणी' कहा जाता है ।
यदि हम तथाकथित श्रागम ग्रन्थों को भगवान् महावीर की अक्षरश: मूलवारणी मान लें, तो यह निश्चित है कि स्वयं भगवान ने श्रागमों को लिपिबद्ध नहीं किया था । और जब उनकी लिपी में वे निबद्ध नहीं हुए, तो ज्यों के त्यों हमारे पास तक कैसे आए, यह एक बहुत बड़ा प्रश्न उपस्थित हो जाता है । फिर इन आगमों का संकलनकर्ता कोई अवश्य ही भगवान् महावीर से भिन्न रहा होगा । गौतम गणधर जो कि भगवान् महावीर की देशना के सब से बड़े भाष्यकार थे, स्वयं लिपिबद्धकर्ता नहीं थे । श्रतएव ऐसी स्थिति में मूँद कर यह मान लेने से कि यह भगवान् महावीर की शब्दश: वारणी है, एक बहुत बड़ा छल होगा। जैन साहित्य के अन्वेषी विद्वान् प्रगरचन्द नाहटा का स्पस्ट कथन है : 'जैन परम्परा के अनुसार जैन श्रागम ग्रन्थ भगवान् महावीर के ५८० वें वर्ष में सर्वप्रथम वल्लभी में
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