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The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4, 1974
महावीर के तपोयोग का रहस्य
मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' शास्त्रों में कहा गया है : "उग्गं च तवोकम्म विसेसो वड्ढमाणस्स" भगवान् महावीर का तपश्चरण अत्यन्त उग्र था। चौबीस तीर्थंकरों का तपोयोग एक अोर गिना जाता है तथा भगवान् महावीर का एक ओर। महावीरकी कृच्छ साधना का जब प्राकः लन किया जाता है, रोमांच हो उठता है। साढ़े बारह वर्ष के छद्मस्थ-पर्यायकाल में उन्होंने ११ वर्ष, ६ मास, २५ दिन का तपोनुष्ठान किया तथा इस अवधि में केवल ११ मास, १६ दिन आहार ग्रहण किया। कम-से-कम उन्होंने छह (दो दिन) की तपस्या की तथा उत्कृष्टतम छः महीने की। छठ्ठ की तपस्या का ब्यौरा तो बहुत अल्प है। अधिकांश तपस्या सुदीर्घ अवधि की है। फिर भी उसका शारीरिक वर्चस्व सदैव वृद्धिगत रहा। उनका दिव्य ललाट, भास्वर नेत्र, कान्ति तथा प्राभा-मण्डल दिन दुगुना आकर्षक रहा। उनके शरीर में कभी शिथिलता, क्लान्ति तथा मलिनता नहीं देखी गयी । तपस्या के कारण उनको कभी थकान भी अनुभूत नहीं हुई। उनकी 'दैनिक चर्या में भी किसी प्रकार का व्यवधान नहीं हुआ। ध्यान और समत्व-योग की साधना क्रमश: निर्मलतम होती गयी।
बुद्ध ने भी दुष्कर तपोनुष्ठान का मार्ग अपनाया। ६ वर्ष तक वह क्रम चलता रहा। अन्त में उन्होंने आहार का सर्वथा परिहार भी कर दिया। किन्तु, उस अनुष्ठान का उनके शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। देवों ने रोम-कूपों से उनके शरीर में प्रोजप्रक्षेप करना प्रारम्भ किया। फिर भी निराहारता के कारण वे अत्यन्त दुर्बल हो गए। उनका कनकाम शरीर कृष्ण हो गया। वे दुर्वर्ण हो गए। शरीर में विद्यमान महापुरुषोचित बत्तीस लक्षण छुप गए। एक बार श्वास का अवरोध कर ध्यान करते समय क्लेश से अत्यन्त पीड़ित हो, बेहोश हो चंक्रमण-वेदिका पर ही गिर पड़े। कुछ ने समझा, श्रमण गौतम मर गए हैं। बुद्ध को तब अनुभव हुअा, यह दुष्कर तपस्या बुद्धत्व-प्राप्ति का मार्ग नहीं है। उन्होंने ग्रामों और नगरों में भिक्षाटन कर भोजन ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया। उनका शरीर पुनः कनक वर्ण हो गया।
तपोनुष्टान से महावीर कान्ति-विहीन नहीं हुए, बुद्ध हो गए और उन्होंने तपो. मार्ग को बदल भी लिया । महावीर साधना की परिपूर्णता तक उसमें स्थिर रहे और सब प्रकार के शारीरिक दुष्प्रभावों से अस्पृष्ठ भी रहे। प्रश्न होता है, यह सब कैसे हुआ ? तपस्या और शारीरिक ऊर्जा का तो परस्पर विरोध है । आहार की प्राप्ति से ही शारीरिक ऊर्जा स्थिर रह पाती है। उसके प्रभाव में उसका टिक पाना कैसे सम्भव हो सकता है ? किन्तु, इन दोनों विरोधी परिस्थितियों (पाहार का अग्रहण तथा शारीरिक ऊर्जा का स्थायित्व) में सन्तुलन साधते हुए चलना तथा साधना के उच्चतम शिखर पर पहुँच जाना महावीर भलीभांति जानते थे। इस पहलू की गहराई में प्रविष्टि के लिए शरीर-विज्ञान तथा योग-विधियों का अनुशीलन अपेक्षित होगा ।
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